नर्मदा की जोड़ने वाली मेला संस्कृति
मेले में सर्कस और रामलीला आकर्षण का केन्द्र हुआ करते थे। माइक पर गीत पुराने सिनेमा गीत व धार्मिक भजन बजते रहते थे

- बाबा मायाराम
मेले में सर्कस और रामलीला आकर्षण का केन्द्र हुआ करते थे। माइक पर गीत पुराने सिनेमा गीत व धार्मिक भजन बजते रहते थे। नर्मदा की नरम-नरम रेत पर पैदल चलना अच्छा लगता था। मेले में भारी भीड़ होती थी। इधर से उधर लोग घूमते रहते थे। परकम्मावासियों की हर-हर नर्मदे की आवाजें ध्यान खींचती थी। महिलाएं और बच्चे बड़ी संख्या में आते थे।
हाल ही में नर्मदा नदी के किनारे सांडिया में मकर संक्रांति का मेला लगा। इसी तरह नर्मदा के किनारे जगह-जगह मेले लगते हैं। मुझे नर्मदा के किनारे रहने के कारण बार-बार नर्मदा के दर्शन हुए हैं। बचपन से ही मैं नर्मदा मेलों में जाता रहा हूं, आज नर्मदा की मेला संस्कृति पर यह कॉलम है, जिससे हम यह समझ सकें कि नर्मदा सिर्फ नदी ही नहीं है, जनसाधारण श्रद्धालुओं के लिए नर्मदा मैया है, यानी मां है, जीवनदायिनी है।
मैं नर्मदा के किनारे मध्यप्रदेश के पूर्वी छोर पर एक कस्बे में रहता हूं। यहां हम पूर्णिमा के दो-तीन पहले से ही सरै भरते ( साष्टांग लेटकर नर्मदा तक जाना ) हुए श्रद्धालुओं को देखते हैं। वे दूर-दूर से आते हैं। एक दिन पहले तो रात भर हर-हर नर्मदे का जयकारा करते हुए नर्मदा जाने वालों का तांता लगा रहता है। पैदल, साइकिल, मोटर साइकिल, टे्रक्टर-ट्राली और चार पहिया वाहनों से जनधारा नर्मदा की ओर बहती रहती है।
पिपरिया से सांडिया की दूरी करीब 20 किलोमीटर है। नर्मदा अमरकंटक से उद्गमित होकर इसी इलाके से होकर गुजरती है। मैं कई बार इन मेलों में जाता रहा हूं। यह मेले उत्साह से भर देते हैं। मेलों का उद्देश्य भी यही रहा है।
नर्मदा, अमरकंटक से उद्गमित होकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र से होते हुए गुजरात में जाकर खम्बात की खाड़ी में मिलती है। इस दौरान वह करीब 13 सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है। इस बीच इसमें कई सहायक नदियां मिलती है, जो इसे सदानीरा बनाती रही हैं। इसके किनारे कई प्रसिद्ध मंदिर व धर्मशालाएं हैं। जलप्रपात व कई दर्शनीय स्थल हैं। कई पुरातात्विक महत्व के अवशेष भी मिले हैं।
नर्मदा की श्रद्धालु परकम्मा ( परिक्रमा) करते हैं। पहले पैदल करते थे, अब भी कुछ करते हैं, लेकिन अब पैदल के साथ बस व रेल से भी करने लगे हैं। परकम्मा के नियम होते हैं। जबलपुर के प्रसिद्ध चित्रकार अमृतलाल वेगड़ ने परकम्मा की थी, और यात्रा वृत्तांत पर तीन किताबें भी लिखी हैं, जो काफी चर्चित रही। मैंने स्वयं वेगड़ जी से मिलकर नर्मदा परकम्मा के अनुभव सुने हैं। इसी प्रकार कुछ विदेशी श्रद्धालुओँ ने भी नर्मदा पर किताबें लिखी हैं।
मेला शब्द की व्युत्पत्ति मिल हुई है। यानी मिलना, देखना, साक्षात्कार करना। इसमें मेल-मिलाप करते हैं। चूंकि पहले बाजार दूरदराज हुआ करते थे और निश्चित दिन बाजार लगते थे। इसलिए मेले में बाजार लगता था। कुछ बुजुर्ग लोगों का कहना है कि हम यहां से सभी गृहस्थी का सामान ले जाते थे। मेले में मनोरंजन भी होता था। नाटक, नौटंकी, रामलीला, झूले आदि से मनोरंजन होता था। लेकिन अब बाजार लोगों के घर तक पहुंच गया है। अब पहले की अपेक्षा कम ख़रीदारी होती है। चूंकि ग्रामीण जनजीवन की गति धीमी होती है। इसलिए मेले व उत्सव उनमें उत्साह का संचार कर देते हैं।
मेलों के लिए लोग काफी तैयारी करते हैं। नए कपड़े पहनते हैं। धरउअल (संभालकर रखे हुए) कपड़े निकालते हैं। खासतौर से महिलाओं व बच्चों में ज्यादा उत्साह रहता है, क्योंकि उन्हें घर गांव से निकलने का मौका कम मिलता है। मेले में बड़ी संख्या में युवा घूमते दिख जाते हैं। वे झूले झूलते व दुकानों पर अपने मन पसंद सामान खरीदते देखे जा सकते हैं।
यहां कई तरह की घरेलू चीजें मिलती हैं। अगर मैं बचपन को याद करूं, तो मेले में बैलगाड़ी से जाया करते थे। मेले के लिए बैलों की साज-सज्जा देखते ही बनती है। उन्हें नहलाना, रंगना और मुछेड़ी (रंग-बिरंगी रस्सियां बांधना) बांधना, यह सब मेले की तैयारी का हिस्सा हुआ करते थे। हालांकि अब बैलगाड़ी नहीं के बराबर होती हैं। लेकिन याद ऐसी ताजी है जैसी कल की ही बात हो।
बचपन से ही मैं परिवार के साथ बैलगाड़ी से नर्मदा जाया करता था। छोटी बैलगाड़ी को बग्घी कहते थे। उसमें तीन-चार लोग ही बैठते थे। बैलगाड़ी के चक्के के ऊपर की पात चमकती थी। रास्ता कच्चा होता था। उसे गड़वाट कहते थे। गड़वाट यानी जो बैलगाड़ी के आने-जाने से स्वत: ही बन जाती है।
बैल तेजी से दौड़ते थे। धूल उड़ती जाती थी। रास्ते में हरे-भरे खेत पड़ते थे। ज्वार व अरहर के पौधों से हमसे टकरा जाते थे। नरम- नरम हथेली से स्पर्श करना, इन पौधों को बहुत अच्छा लगता था। चक्कों की चूं-चर्र आवाज और बैलों के गले में बंधे घुंघरू मिलकर संगीतमय वातावरण बनाते थे। मन उमंग से भरा होता था।
हम मेले में दो-तीन दिन रुकते थे। पेड़ के नीचे हमारा डेरा होता था। बैलों को यही बांध देते थे। उनके चरने के लिए धान का पुआल घर से ही बैलगाड़ी में धरके लाया जाता था। ठंड के लिए उन्हें टाट के बोरों से ढंक दिया जाता था, जिससे उन्हें ठंड न लगे। नर्मदा के किनारे विशाल इमली के पेड़ हुआ करते थे। कई बच्चे इन इमली की शाखों से झूलते रहते थे। सामने नर्मदा का विशाल घाट होता था और मेले की भीड़भाड़। घाट ऊपर से लोग छोटे-छोटे दिखते थे।
मेले में सर्कस और रामलीला आकर्षण का केन्द्र हुआ करते थे। माइक पर गीत पुराने सिनेमा गीत व धार्मिक भजन बजते रहते थे। नर्मदा की नरम-नरम रेत पर पैदल चलना अच्छा लगता था।
मेले में भारी भीड़ होती थी। इधर से उधर लोग घूमते रहते थे। परकम्मावासियों की हर-हर नर्मदे की आवाजें ध्यान खींचती थी। महिलाएं और बच्चे बड़ी संख्या में आते थे। मिठाईयों की दूकानें सजी होती थीं। भुने चने, मूंगफली, सिंघाड़े इत्यादि भी बिकते थे। रात में नौटंकी और नाटक होते थे। सर्कस भी बहुत बड़ा आकर्षण होता था। झूले व हिड़ोलना भी बच्चों के लिए होते ही थे। यहां तरह के करतब दिखाने वाले भी आते थे। नर्मदा में बड़े झादे (नाव) चलते थे जिन पर लोग तो बैठते थे, साइकिलें, मोटर साइकिलें व गाय-बैल भी बिठा लेते थे।
मेले में विविध रुचि व जरूरत वाले लोग भी आते हैं। पुण्य स्नान तो है ही, साथ ही खरीदने, बेचने, घूमने, फिरने व मनोरंजन के लिए भी लोग आते हैं। यहां गांव, शहर व अलग-अलग व समूहों में लोग आते हैं। अब बैलगाड़ी की जगह ट्रेक्टर व आटो रिक्शा से लोग आते हैं। टोलियों में लोग नर्मदा मैया के जयकारा करने के साथ झंडे हाथों में लिए आते हैं।
बच्चों के लिए आकर्षण खिलौने व मिठाईयां हुआ करती हैं। पुंगी, फिरकनी, बांसुरी, गुब्बारे और गेंद इत्यादि। महिलाएं यहां रसोई में काम आने वाली कई चीजें खरीदते देखी जा सकती हैं- जैसे झारा, कढाई, बेलन, थालियां, कटोरी इत्यादि। इसके अलावा, यहां भोजन में दाल बाटी, और बैगन का भर्ता भी काफी प्रसिद्ध है। इसे बनाना सरल भी है। आजकल जगह-जगह भंडारे भी होते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोग भोजन करते हैं।
कुल मिलाकर, इन मेलों में प्रेम और भाईचारा दिखाई देता है। यह हमारी जमीन से जुड़ी देसी मेला संस्कृति है, जो एक दूसरे को जोड़ती है। एक दूसरे से बतियाने व मिलने का मौका देती है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान का मौका देती है। मेला संस्कृति हमें सामूहिकता का भाव देती है। और उन अच्छी परंपराओं से जोड़ती है, जो हमें खुद से परे लोगों से मिलाती है। जिस तरह छोटी नदियां नर्मदा में आकर एक हो जाती हैं, उसी तरह जनसाधारण भी मेलों में आकर नर्मदा की शरण में आकर एक हो जाते हैं। यह संस्कृति आज की दिखावे और तामझाम की संस्कृति से दूर ठेठ ग्रामीण देसी मिट्टी की उपज है, जो सालों से विकसित हुई है। लेकिन ये नदियां कई कारणों से पहले से कमजोर भी हो रही हैं, प्रदूषित भी हो रही हैं, जलवायु बदलाव की मार भी झेल रही हैं। क्या हम इन्हें बचाने और मेला संस्कृति को कायम रखने के लिए दिशा में सचमुच कुछ करने को तैयार हैं?


