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लंबी विदेश यात्रा पर मोदी

एक महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री मोदी फिर से विदेश यात्रा पर निकल गए हैं। इस बार घाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, अर्जेंटीना, ब्राजील और नामीबिया इन पांच देशों की यात्रा श्री मोदी कर रहे हैं, जो 8 दिनों की होगी। हमेशा की तरह इस बार भी सरकारी बयान में बताया गया है कि विदेश यात्रा का मकसद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूत करना है

लंबी विदेश यात्रा पर मोदी
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एक महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री मोदी फिर से विदेश यात्रा पर निकल गए हैं। इस बार घाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, अर्जेंटीना, ब्राजील और नामीबिया इन पांच देशों की यात्रा श्री मोदी कर रहे हैं, जो 8 दिनों की होगी। हमेशा की तरह इस बार भी सरकारी बयान में बताया गया है कि विदेश यात्रा का मकसद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूत करना है। भारतीय प्रधानमंत्री इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों से मुलाकात करेंगे और आपसी सहयोग और विकास पर चर्चा करेंगे। इसमें कुछ नया नहीं है, हमेशा यही तो होता है कि दूसरे राष्ट्राध्यक्षों से श्री मोदी की हाथ मिलाते, गले मिलते, सौहार्द्रपूर्ण माहौल में हंसते-मुस्कुराते चर्चा करते और विभिन्न करारों पर हस्ताक्षर करते तस्वीरें आती हैं। देश को बताया जाता है कि दुनिया में भारत का डंका बज रहा है। भारत को विकसित करने के लिए सारे देश मदद कर रहे हैं। लेकिन इन तस्वीरों की हकीकत तब समझ आती है, जब ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी बड़े से भारतीय प्रतिनिधिमंडल को अलग-अलग देशों में अपना पक्ष रखने के लिए भेजना पड़ता है।

विदेश नीति की परीक्षा पहलगाम हमले या ऑपरेशन सिंदूर जैसी असामान्य स्थितियों में ही होती है, और इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना ही चाहिए कि इस परीक्षा में मोदी सरकार बुरी तरह विफल रही।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के युद्धविराम को लेकर हो रहे बेहूदे दावे थम ही नहीं रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इन दावों को खारिज नहीं किया है तो अब तक भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी सफाई देनी पड़ रही है। अभी विदेश मंत्री एस जयशंकर से अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक के लिए हो रहे एक साक्षात्कार में फिर यह सवाल पूछा गया कि राष्ट्रपति ट्रंप ने कई बार कहा है कि 'संघर्ष को रोकने के लिए व्यापार को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया। क्या इससे व्यापार समझौते की बातचीत पर कोई असर पड़ा है?Ó इस सवाल से साफ समझ आता है कि ट्रंप के दावे को अब दुनिया भी मान रही है। अगर श्री मोदी ने पहले ही बार में इस पर आपत्ति जताई होती तो शायद इस तरह के सवाल नहीं उठते। लेकिन अब सवाल उठ रहे हैं और विदेश मंत्री सफाई दे रहे हैं कि 9 मई की रात अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वांस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया था तो वह भी उसी कमरे में मौजूद थे। जयशंकर ने कहा कि तब प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत पाकिस्तान की धमकियों से डरेगा नहीं बल्कि इसका जवाब देगा।

सोचने वाली बात यह है कि जो बयान भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री पहले दे चुके हैं, जिसे अभी विदेश मंत्री एस.जयशंकर भी कह रहे हैं, उस बात को अब तक प्रधानमंत्री मोदी अपने मुंह से क्यों नहीं बोलते। आखिर किसने उनके मुंह पर चुप की उंगली रखी है। क्या लंबी-लंबी विदेश यात्राओं से ये उंगली हटेगी या मुंह पर ताले और बढ़ेंगे। अभी कनाडा में जी-7 की बैठक में श्री मोदी शामिल हुए थे, और पखवाड़े बाद ही अब ब्रिक्स सम्मेलन के लिए वे रवाना हुए हैं। ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल सभी देश अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए करते हैं, हालांकि इनमें असली जोर व्यापार का होता है, क्योंकि इस समय पूरी वैश्विक राजनीति कारोबारी हितों के इर्द-गिर्द घूम रही है। ऐसे में श्री मोदी की मौजूदा यात्रा में भी व्यापार को बढ़ाने के संकेत अलग-अलग तरीकों से दिए गए हैं।

प्रधानमंत्री मोदी सबसे पहले घाना जाएंगे और यात्रा के अंतिम चरण में स्वदेश वापसी के समय नामीबिया जाएंगे। ये सारे देश अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी हैं और कहा जा रहा है कि इससे ग्लोबल साउथ के भारतीय एजेंडे को नई धार मिल सके। बता दें कि ग्लोबल साउथ शब्द पहली बार 1969 में राजनीतिक कार्यकर्ता कार्ल ओग्लेसबी ने इस्तेमाल किया था। इसमें अमूमन वही सारे देश हैं, जिन्हें तीसरी दुनिया के देश कहा जाता है। दुनिया के उत्तरी हिस्से में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूरोप के देशों से अलग दक्षिण हिस्से में आने वाले अफ्रीकी, द.अमेरिकी और कई एशियाई देशों को ग्लोबल साउथ के तहत रखा जाता है। इनकी चिंताएं और सरोकार लगभग एक जैसे हैं। हालांकि इनमें चीन का दबदबा है और वहीं आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों का रुख भी कई बार ग्लोबल नार्थ की तरफ ही दिखाई देता है। ऐसे में ग्लोबल साउथ के बैनर तले जो नयी वैश्विक व्यवस्था बनाने की कोशिश चल रही है, वह कितनी कारगर होगी, कहा नहीं जा सकता। वैसे अभी श्री मोदी जिन देशों में जा रहे हैं, या ग्लोबल साउथ में जो देश आते हैं, उनसे भारत के संबंध पहले ही अच्छे रहे हैं। इन सभी देशों में प.नेहरू की बनाई विदेश नीति के कारण ही भारत की साख मजबूत बनी हुई है। अगर इसी विदेश नीति पर मोदी सरकार चलती रहती तो फिर इतनी विदेश यात्राओं के बाद भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर समर्थन जुटाने के लिए भारत को जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती।

वैसे ब्रिक्स सम्मेलन के अलावा श्री मोदी की मौजूदा यात्रा का बड़ा मकसद व्यापार को बढ़ाना ही दिख रहा है। घाना पश्चिमी अफ्रीका की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। घाना से भारत में होने वाले आयात में 70 प्रतिशत से ज्यादा सोना होता है। घाना के लिए भारत सबसे बड़ा निर्यातक देश है। घाना से श्री मोदी त्रिनिदाद और टोबैगो जाएंगे, इस कैरेबियाई क्षेत्र में भारतीय मूल के 40-45प्रतिशत लोग रहते हैं। भारत और त्रिनिदाद और टोबैगो के बीच आर्थिक संबंध बहुत ही ज्यादा मजबूत हुए हैं। वित्त वर्ष 2024-25 में दोनों देशों के बीच कुल व्यापार 341.61 मिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है। यहां से श्री मोदी अर्जेंटीना जाएंगे, और ट्रंप के चहेते राष्ट्रपति जेवियर मिलेई के साथ द्विपक्षीय वार्ता करेंगे। रक्षा, कृषि, खनन, तेल और गैस, नवीकरणीय ऊर्जा, व्यापार और निवेश पर इस दौरान खास जोर रहेगा। इसके बाद ब्राजील में ब्रिक्स सम्मेलन के बाद अपनी राजकीय यात्रा के लिए प्रधानमंत्री ब्रासीलिया जाएंगे। जहां राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा के साथ व्यापार, रक्षा, ऊर्जा, अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी, कृषि और स्वास्थ्य जैसे आपसी हित के क्षेत्रों में रणनीतिक साझेदारी को व्यापक बनाने पर चर्चा होगी। ब्राजील, दक्षिण अमेरिका में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। सबसे आखिरी में श्री मोदी नामीबिया जाएंगे, जहां वे संसद को भी संबोधित करेंगे। हाल के वर्षों में भारत और नामीबिया के बीच व्यापार बढ़ा है। 2000 में यह 3 मिलियन डॉलर से भी कम था जो अब लगभग 600 मिलियन डॉलर हो गया है। भारत में चीते नामिबिया से ही लाए गए थे।


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