ट्रम्प के न बुलाये जाने के लिये मोदी खुद ही जिम्मेदार हैं
अमेरिका के नये बने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को लेकर इसी तरह की आशंकाएं हैं

- डॉ. दीपक पाचपोर
अमेरिका के नये बने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को लेकर इसी तरह की आशंकाएं हैं। उनकी वाणी जैसी स्वच्छंद है, कार्यप्रणाली वैसी ही उच्छृंखल। 4 साल के अंतराल के बाद फिर से लौटे ट्रम्प जब दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति के पद की सोमवार को वाशिंगटन डीसी में शपथ ले रहे थे तो उनके अतिथियों के रूप में उन्हीं के जैसे अनेक दक्षिणपंथी नेता मौजूद थे।
एक समय था जब किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष, खासकर बड़े देशों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में कौन आमंत्रित है और कौन नहीं, यह बहुत मायने नहीं रखता था। देखा यह जाता था कि किस व्यक्ति के सर्वोच्च पद पर आसीन होने से किस तरह की आंतरिक व बाह्य नीति अपनाई जायेगी? हाल के वर्षों में शपथ ग्रहण समारोह एक इवेंट बन गया है जो घरेलू मोर्चे के साथ-साथ विदेशी मित्र हों या शत्रु अथवा तटस्थ देश-सभी को साधने का अवसर माना जाने लगा है। जब से यह परिपाटी चल पड़ी है, तब से मेहमानों की सूची इस मौके की सबसे अधिक गौरपूर्वक देखे जाने वाली बात बन गयी है। अतिथियों का चयन शपथ लेने वाले व्यक्ति पर काफी कुछ छोड़ दिया गया है और वह इस अवसर पर कौन उपस्थित रहेगा यह तय करने के साथ ही यह संदेश भी दे देता है कि अपने कार्यकाल में वह किसके साथ कैसे सम्बन्ध निभायेगा (या निभायेगी)। देश और पार्टी की नीतियां एवं विचारधाराएं अब गौण हो चली हैं तथा ज्यादातर राष्ट्राध्यक्ष जनता को अपने बूते हांकने लगे हैं। विशेष रूप से वे शासक जिनका रवैया अपेक्षाकृत कम या अलोकतांत्रिक होता है। ऐसे शासक अपने देश की चिर-परिचित नीतियों के साथ-साथ वैश्विक संतुलन बिगाड़ने में भी सक्षम होते हैं।
अमेरिका के नये बने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को लेकर इसी तरह की आशंकाएं हैं। उनकी वाणी जैसी स्वच्छंद है, कार्यप्रणाली वैसी ही उच्छृंखल। 4 साल के अंतराल के बाद फिर से लौटे ट्रम्प जब दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति के पद की सोमवार को वाशिंगटन डीसी में शपथ ले रहे थे तो उनके अतिथियों के रूप में उन्हीं के जैसे अनेक दक्षिणपंथी नेता मौजूद थे। अतिथियों के रूप में किसे बुलाना है और किसे नहीं, इसके सामान्यत: दो उद्देश्य होते हैं- एक, नयी शुरुआत करने की इच्छा की अभिव्यक्ति। याद करें 2014 में पहली बार नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे थे तब उन्होंने सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया था। पाकिस्तान के पीएम नवाज़ शरीफ़ को भी बुलाकर मोदी ने संदेश दिया था कि वे पड़ोसी मुल्कों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाना चाहते हैं। यह हो नहीं सका वह अलग बात है जिसके अनेक कारण हैं। दूसरे, ऐसे राष्ट्राध्यक्ष अपने जैसे राष्ट्रपतियों-प्रधानमंत्रियों का कुनबा बनाते हैं। ये मिलकर दुनिया पर राज करने की इच्छा रखते हैं या सम्मिलित गुट के रूप में अपने हितों को साधते हैं। अमेरिका और उसके जैसे बड़े देश सम्बन्ध निर्वाह में अपनी शर्तें लाद सकते हैं। वहां के राष्ट्रपति किसे बुलाते हैं किसे नहीं, इसका असर उनके अपने देशों पर कम आमंत्रित या अनामंत्रित देशों पर अधिक पड़ता है- जैसे मोदी को न बुलाये जाने पर अमेरिकियों को फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन वह भारत में हंगामे का सबब बन गया है। मोदी नहीं बुलाये गये हैं तो यह साफ संकेत हैं कि आने वाले समय में अमेरिका को लेकर भारत की परेशानियां बढ़ सकती हैं।
पिछले एक दशक से भारत की स्थिति अंतरराष्ट्रीय पटल पर चाहे जो रही हो, लेकिन यह सच है कि मोदी ने भारत की विदेश नीति को राष्ट्रीय की बजाये अपनी व्यक्तिगत छवि निर्माण की नीति बना रखा है। वे राष्ट्राध्यक्षों के ग्रुप फोटो में कहां खड़े होते हैं, किसके साथ चाय पी रहे हैं, किसे झूला झुला रहे हैं- यह अधिक महत्वपूर्ण बना दिया गया है। इसलिये वे संसदीय परम्पराओं के अनुरूप अपनी विदेश यात्राओं की रिपोर्ट न संसद में पेश करते हैं और न ही राष्ट्रपति को देते हैं। अपने कारोबारी मित्रों को साथ लेकर घूमना और उन्हें विदेशों ठेके दिलाना तो विदेश नीति नहीं हो सकती। दो देशों के सम्बन्धों को मोदी ने व्यक्तिगत दोस्ती के प्रदर्शन का विषय बना लिया है। वे किसके गले लगते हैं, किसे अंगूठी भेंट करते हैं और किस देश में जाकर वहां का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पाते हैं, इसका उपयोग हेडलाइन मैनेजमेंट के लिये तो किया जा सकता है; या खुद को अपने लोगों के बीच देवता के रूप में स्थापित करने में भी वह उपयोगी होगा, परन्तु वह देशहित में रत्ती भर भी नहीं है। जिन लोगों के लिये मोदी विश्वगुरु हैं, वे सोचें कि आज वे अनामंत्रित क्यों हैं। दरअसल, इसका आभास ट्रम्प को होगा कि मोदी अपने देश में ही कमजोर पड़ गये हैं। भारत ने अपनी पूरी वैदेशिक नीति को मोदी के जरिये कुछ लोगों के व्यवसाय संवर्धन अथवा हथियार खरीद तक सीमित कर दिया है। अमेरिका जानता है कि फिलहाल मोदी अपनी जमीन पर ही ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे हैं।
मोदी को यदि ट्रम्प ने नहीं बुलाया है, तो यह उनकी अपनी पराजय है। इसे भारत की हार, नाकामी या अपमान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये क्योंकि भारत की चिर-परिचित विदेश नीति तटस्थता की रही है। उस विदेश नीति को मोदी कभी से मटियामेट कर चुके हैं। वर्तमान दौर की यह उनकी अपनी निजी यात्राएं बन गयी है वरना हमारी विदेश नीति में न तो ताकतवर राष्ट$्राध्यक्षों की चिरौरी करने की परम्परा रही है और न ही किसी भी कदम के लिये किसी शक्तिशाली राष्ट्रपति के सामने अपने सुरक्षा सलाहकार को भेजकर इस बात की सफाई देने की रही कि हमारे राष्ट्रपति ने आपके साथ युद्ध कर रहे देश के राष्ट्रपति के कंधे पर हाथ रखकर चलहकदमी क्यों की। हमारे किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्राओं के दौरान पार्टी या सरकार के खर्च पर विदेशी जमीन पर भीड़ नहीं जुटाई, न ही किसी के लिये नारे लगवाये कि 'अबकी बार फलां-फलां की सरकार'। तमाम बड़े देशों में हमारे पीएम जाते रहे हैं और वहां की सड़कों के दोनों ओर वहीं की जनता जोश व सम्मान के साथ उनका अभिवादन करती थी- अमेरिका हो या उसका धुर विरोधी तत्कालीन सोवियत रूस। अमेरिका जान गया है कि भारत के पास अब ऐसा प्रधानमंत्री नहीं है जो अपने राजदूत को यह सुनने पर तत्काल वापस बुला लेता था कि 'जो अमेरिका के साथ नहीं वह उसका दुश्मन है।' अब उसके पास ऐसा पीएम भी नहीं है जो दुनिया को कह सके कि 'अमेरिका अपना सातवां बेड़ा भेजे या सत्तरवां। यह युद्ध नहीं रूकेगा।' अब तो ऐसी सरकार है जो अपने देश की सबसे बड़ी सैन्य जीत की प्रतीक बनी तस्वीर को सेना मुख्यालय से हटाती है।
ट्रम्प द्वारा एक स्वाभिमानी भारत को नहीं वरन उन मोदी को 'नहीं' बुलाया गया है जो हर राष्ट्राध्यक्ष से निजी मित्रता के दावे करते हैं, किसी के आने पर उन्हें गंगा आरती दिखाते हैं तो किसी के आगमन पर अपने ही देशवासियों की बस्तियों के आगे रातों-रात दीवारें खड़ी कर देते हैं ताकि उनकी गरीबी न दिख सके। फिर, भारतीय प्रधानमंत्री को न बुलाना बहुत स्वाभाविक है क्योंकि कोई भी पूंजीवादी व्यक्ति अथवा देश उसी से लगाव रखता है जिसमें उसे फायदा दिखे। उसके हितों का विस्तार हो। आज अमेरिका को भारत के मुकाबले चीन से मित्रता में अधिक लाभ दिख रहा है सो ट्रम्प ने मोदी को नज़रंदाज कर दिया।
देश को आगे कीजिये मोदी जी! आप ताकतवर अपने बल पर नहीं वरन भारत के भरोसे हैं। जवाहर लाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी से होते हुए मनमोहन सिंह सभी की अपनी शख्सियतें थीं लेकिन किसी ने खुद को देश से बड़ा नहीं बताया। देश को बड़ा कीजिये- आप अपने आप बड़े बन जायेंगे!
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


