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आसियान में मोदी की गैरहाजिरी

दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन, आसियान का शिखर सम्मेलन मलेशिया में होने जा रहा है

आसियान में मोदी की गैरहाजिरी
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दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन, आसियान का शिखर सम्मेलन मलेशिया में होने जा रहा है। जिसमें इस बार भारत की तरफ से प्रधानमंत्री मोदी शामिल नहीं हो रहे हैं, उनका प्रतिनिधि बनकर एस जयशंकर पहुंच रहे हैं। श्री मोदी की गैरहाजिरी को लेकर कोई ठोस कारण अब तक सामने नहीं आया है कि फलां-फलां वजह से मलेशिया पहुंचना बिल्कुल ही असंभव था। हालांकि कांग्रेस पार्टी का कहना है कि ट्रंप से आमना-सामना न हो, इससे बचने के लिए नरेन्द्र मोदी आसियान में नहीं गए। वहीं हो सकता है कि बिहार चुनाव की व्यस्तता भी मोदी को देश के लिए जरूरी कामों से दूर कर रही है। प्रधानमंत्री का काम छोड़कर बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार करने का काम मोदी पहले भी करते रहे हैं। बहरहाल, आसियान जैसे मंच क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए जरूरी होते हैं। मोदी बार-बार भारत को विश्वगुरु बनाने की बात करते हैं, लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इस तरह भारत का रसूख कायम होगा। विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष जब आपस में मिलते हैं तो जरूरी मुद्दों पर चर्चा होती है, कई ऐसे समझौतों की राह बनती है, जो फोन पर चर्चाओं में संभव नहीं है।

अमेरिका से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी मलेशिया पहुंचे हैं और रास्ते में वो कतर होते हुए आए। दुनिया के दूसरे कोने से ट्रंप बार-बार एशिया का रुख कर रहे हैं, क्योंकि यहां उन्हें व्यापारिक, राजनैतिक, सामरिक लाभ नजर आ रहे हैं। रविवार सुबह ट्रंप रविवार सुबह मलेशिया के दौरे पर पहुंचे और कुआलालंपुर में उनकी मौजूदगी में थाईलैंड और कम्बोडिया ने सैन्य संघर्ष को खत्म करने के लिए शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। ट्रंप ने कहा कि जिसे लोग असंभव मान रहे थे, उसे उन्होंने संभव कर दिखाया है। गौरतलब है कि थाईलैंड और कम्बोडिया के बीच एक मंदिर विवाद को लेकर 5 दिनों तक जंग चली थी, जिसमें 48 लोगों की मौत हुई थी। इसे खत्म करने में ट्रंप की अहम भूमिका बताई जा रही है। ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में रणनीतिक तौर पर खुद को शांतिदूत साबित करने में लगे हुए हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच भी युद्ध रुकवाने का दावा कम से कम 50 बार तो कर ही चुके हैं, जिसे मोदी ने गलत साबित करने की पुख्ता कोशिश एक बार भी नहीं की। उधर रूस से तेल खरीद को रोकने के लिए भी ट्रंप भारत पर दबाव बनाने की बात कह रहे हैं। मोदी इसे भी नकार नहीं रहे।

ऐसा नहीं है कि ट्रंप बड़ी नेकनीयत से ये सारे काम कर रहे हैं। शांति का उनका विचार गांधी और नेहरू के विचारों से दूर-दूर तक मेल नहीं खाता है। ट्रंप दबाव की राजनीति में यकीन रखते हैं और दुनिया पर वही थोप रहे हैं। अगर भारत की मौजूदा सरकार गांधीवादी सिद्धांतों और नेहरूवादी रणनीति के साथ बढ़ती तो ट्रंप की हिम्मत नहीं होती कि वो इतनी बेतकल्लुफी के साथ भारत के प्रधानमंत्री के लिए बयान देते। लेकिन अभी की शर्मनाक हकीकत यही है। ट्रंप शांतिदूत वाले चोगे को पहनकर बड़ी चतुराई से भारत को अलग-थलग कर रहे हैं।

पाकिस्तान पूरी तरह से ट्रंप की सरपरस्ती में है, अब मलेशिया में ट्रंप की मुलाकात चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से होने वाली है। चीन भी भारत के खिलाफ पाकिस्तान को समर्थन देता है और अब व्यापार के फायदे को देखते हुए अमेरिका और चीन बाकी विवादों को सुलझा लेंगे, तब भारत के लिए खतरे कितने बढ़ जाएंगे, इस बात पर मोदी सरकार को ध्यान देना चाहिए। भारत पर तो अमेरिका ने भारी भरकम टैरिफ लगा ही दिया है, इसके अलावा एच 1 बी वीज़ा को भी इतना कठिन कर दिया है कि हजारों परिवार इससे प्रभावित हो गए हैं। वहीं चीन पर भी अमेरिका ने टैरिफ लगाया था, जिसके जवाब में चीन ने अमेरिकी किसानों से सोयाबीन खरीद को रोक लगाकर अमेरिका की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर चोट की है। इसके अलावा चीन रेयर अर्थ यानी धरती के दुर्लभ खनिजों को भी अमेरिका पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है। ये ऐसे खनिज हैं, जिनके बिना सेमीकंडक्टर, हथियार सिस्टम, गाड़ियां या स्मार्टफ़ोन तक नहीं बनाए जा सकते। अमेरिका की अर्थव्यवस्था को इन दुर्लभ खनिजों की लगातार जरूरत है। चीन के अलावा और जिन देशों में इनकी उपलब्धता है, वहां तो अमेरिकी दबाव काम कर जाता है, मगर चीन के साथ ट्रंप को आमने-सामने समझौता करना पड़ेगा। चीन की भी व्यापार, रोजगार आदि की अपनी समस्याएं हैं, जो अमेरिकी टैरिफ से और बढ़ी हैं। लिहाजा दोनों देश अब व्यापार के मुनाफे को अहमियत देते हुए किसी बड़े समझौते पर राजी हो सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति इसी तरह काम करती है, जहां अपना नुकसान कराए बिना सामने वाले पक्ष को राजी किया जाता है। फिलहाल भारत में ऐसी कूटनीति नदारद है। नरेन्द्र मोदी दुनिया भर के नेताओं से गले मिल लें, हाथ मिलाकर फोटो खिंचवा लें, हंसी-ठ_ा करते दिखें, लेकिन जनता के धन पर हो रही इन खर्चीली मुलाकातों से देश को आखिर में क्या हासिल हो रहा है, यह सवाल सरकार से किया जाना चाहिए। ट्रंप से मलेशिया में मुलाकात कर, आंख में आंख डालकर अगर मोदी यह पूछ सकते कि आप हमें कैसे निर्देशित कर सकते हैं कि हम रुस से तेल खरीदें या न खरीदें। अगर मोदी यह पूछ सकते कि पाकिस्तान के साथ हमारे संबंधों पर आप बिना अधिकार के बयान क्यों दे रहे हैं। अगर मोदी यह पूछ सकते कि आपने मेरे देश के लोगों को जंजीरों में बांधकर अपने सैन्य जहाज में भरकर क्यों भेजा। तब तो मोदी के विश्वगुरु बनने की संभावनाएं दिखतीं, अभी तो संभावनाओं की जगह केवल शर्मिंदगी दिख रही है।


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