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भावी कुम्भ के लिए कई सवाल

पिछले अनेक वर्षों से प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार एवं नासिक में होने वाले कुम्भ भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक वैभव के आयोजन माने जाते रहे हैं

भावी कुम्भ के लिए कई सवाल
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पिछले अनेक वर्षों से प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार एवं नासिक में होने वाले कुम्भ भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक वैभव के आयोजन माने जाते रहे हैं। इन चारों स्थानों पर हर 12 वर्षों में आयोजित होने वाले कुम्भ हिन्दुओं के धार्मिक जीवन में अत्यधिक महत्व रखते हैं। हर धर्मप्राण हिन्दू अपने जीवन में इसमें शामिल होने की इच्छा रखता है। अब तक तो कुम्भ का सरोकार उसके धर्म-पक्ष से था लेकिन 14 जनवरी से प्रारम्भ होकर बुधवार को महाशिवरात्रि के अवसर पर समाप्त हुआ प्रयागराज का कुम्भ कई अच्छी-बुरी यादें तो छोड़ ही गया है, उससे अनेक ऐसे सवाल भी उठ खड़े हुए हैं जिनका सम्बन्ध देश की धार्मिक व्यवस्था से तो है ही, राजनीति व संस्कृति से भी है। इन सवालों के उत्तर यदि न तलाशे गये तो आने वाले हर कुम्भ के आयोजनों को इन प्रश्नों से जूझना होगा जिससे देश का धर्म प्रभावित होगा, राजनीति व संस्कृति भी प्रभावित होगी; और ख्याल रहे कि ये असर नकारात्मक होंगे।

आस्थावान लोग मानते हैं कि कुम्भ हजारों वर्षों से आयोजित होते आये हैं, तो इसका अर्थ यह है कि भारत पर शासन करने वाले अलग-अलग राजवंशों ने इसके आयोजनों में कोई व्यवधान नहीं डाला और न ही मनाही की। इनमें बाहर से आये मुसलिम शासक भी थे और अंग्रेज भी। इस देश में विभिन्न धर्मों के मानने वाले सदियों से रहते आये हैं जिनके चलते भी कभी कोई दिक्कत नहीं आई। विविधता वाले देश में जिस तरह अनेक पर्व एवं त्यौहार सभी के द्वारा हिल-मिलकर मनाये जाते रहे हैं, कुम्भ भी उनमें से एक है। यह भी अनेकता में एकता का एक उदाहरण रहा है, लेकिन प्रयागराज महाकुम्भ हटकर साबित हुआ है। इस परम्परागत व पौराणिक महत्व के आयोजन को राजनीतिक कब्जे के लिये भी याद किया जायेगा। पहले तो कुछ पंडितों द्वारा ऐलान कराया गया कि इस बार का कुम्भ 144 वर्षों के बाद दुर्लभ संयोग में आया है जिसके कारण इसका विशेष माहात्म्य है। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी जैसी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की कमी से जूझ रहे उत्तर प्रदेश सरकार ने लगभग 5500 करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि इसके लिये आवंटित की थी। कुम्भ के बारे में कहा जाता है कि इसमें आने के लिये न कोई किसी को बुलाता है और न ही कोई किसी के बुलावे पर पहुंचता है। हिंदू समाज का यह एक स्वत:स्फूर्त व सामूहिक आयोजन होता है जो साझा विरासत का हिस्सा है। पहली बार बड़े पैमाने पर विज्ञापनों एवं प्रचार माध्यमों के जरिये राज्य की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये बड़ी भीड़ एकत्र करने की योजना बनाई।

इसमें जिस तरह से साधु-संतों द्वारा राजनीतिज्ञों को नहलाया गया, भगदड़ के बाद भी लोगों पर हैलीकॉप्टरों से पुष्प वर्षा की गयी, वीआईपी के लिये विशेष व्यवस्था तथा आमजनों को गंदे पानी में नहाने व उसका आचमन करने पर मजबूर किया गया, वह भाजपा द्वारा राजनीतिक लाभ लेने के अशोभनीय कृत्य ही कहे जायेंगे।

सरकार की ओर से बताया गया था कि 40 करोड़ लोग पहुंचेंगे परन्तु तैयारी 100 करोड़ लोगों के लायक की गयी है। यह दावा 28-29 की रात फेल हो गया जब मौनी अमावस्या के अवसर पर पवित्र स्नान करने के लिये आतुर बड़ी संख्या में लोग बदइंतज़ामी के कारण कुचले गये। कहा जाता है कि मरने वालों की संख्या घोषित आंकड़ों (30) से कहीं ज्यादा है और बकौल पूर्व सीएम व सांसद अखिलेश यादव भगदड़ एक-दो स्थान पर नहीं बल्कि 4-5 जगहों पर हुई। तुर्रा यह है कि यदि इसके बारे में सवाल किया जाये तो उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसी सनातनी की फेसबुक पर डाली पोस्ट उद्धृत करते हैं कि 'कुम्भ में जिसने जो चाहा उसे वह मिला। गिद्धों को लाशें मिलीं और सुअरों को कीचड़ मिला।Ó बताया यह भी जाता है कि आज भी कई लोगों के परिजन लापता है और माना जाता है कि उनकी लाशें मिलनी अब मुमकिन नहीं। आरोप है कि मुआवजा बचाने के लिये बिना पोस्टमॉर्टम कई लाशें परिजनों के साथ उनके घरों को रवाना कर दी गयीं।

भारत में नये साम्प्रदायिक विभाजन का कुरूप चेहरा देखने को मिला जब सनातनियों का कथित रूप से प्रतिनिधित्व करने वाली धर्म संसद एवं कई अखाड़ों ने ऐलान कर दिया कि इसमें मुसलमानों को दुकानें नहीं लगाने दी जायेंगी। पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से भारत इस तरह की मानसिकता से दो-चार हो रहा है। देश को केवल बहुसंख्यकों का निज़ाम बनाने में विश्वास रखने वाली विचारधाराएं, ताकतें एवं संगठन हालिया दौर में भारत की सारी बुराइयों की जड़ अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलिमों को मान रही है। इसी मानसिकता के तहत कहीं मुसलिमों को सोसायटियों में फ्लैट नहीं खरीदने दिये जाते तो कहीं मुसलिम फेरीवाले प्रतिबंधित किये जा रहे हैं।

कोरोना फैलाने के लिये जिस कौम को सबसे ज्य़ादा दोषी माना गया था और जिन्हें यहां दुकानें लगाने को मना किया गया था, उसने अपने घरों व मस्जिदों को बेशक भगदड़ में फंसे लोगों के लिये खोल दिया हो, लेकिन उनके प्रति ज़हर की मात्रा ज़रा भी कम होती नज़र नहीं आती। यहां से लेकर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्रयागराज की ट्रेनों का इंतज़ार करते लोगों के कारण हुई भगदड़ों के लिये भी इन्हें ही जिम्मेदार मानने की परम्परा सोशल मीडिया पर जारी रही।

आशंका है कि यही ट्रेंड आने वाले तमाम कुम्भों में देखने को मिल सकता है। नियमित अंतराल में कहीं न कहीं होने वाले कुम्भ आगे कितना हलाहल उंड़ेलेंगे- इसका अनुमान लगाया जा सकता है।


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