जाते-जाते बहुतों को बेनकाब कर गये मनमोहन सिंह
मनमोहन सिंह कई मायनों में अलग तरह के प्रधानमंत्री थे। सिर्फ इसलिये नहीं कि वे गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से आये थे या कांग्रेस के वे उन गिने-चुने पीएम में से रहे जो नेहरू-गांधी परिवार से सम्बद्ध नहीं थे

- डॉ. दीपक पाचपोर
मनमोहन सिंह कई मायनों में अलग तरह के प्रधानमंत्री थे। सिर्फ इसलिये नहीं कि वे गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से आये थे या कांग्रेस के वे उन गिने-चुने पीएम में से रहे जो नेहरू-गांधी परिवार से सम्बद्ध नहीं थे। उनके पास एक बेहतरीन कार्य अनुभव था जिसके बल पर उन्होंने पहले 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री रहते और फिर 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री के रूप में देश को आर्थिक संकटों से उबारा था।
अपनी कार्य कुशलता और उत्कृष्ट स्वभाव का स्वयं उदाहरण बन चुके पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जाते-जाते बहुतों को बेनकाब कर गये, जिनमें भारतीय जनता पार्टी सहित अनेक कांग्रेस विरोधी दल, कई स्वयंसेवी संगठन और देश का मुख्यधारा का मीडिया है। मनमोहन सिंह के निधन के बाद जिस प्रकार से उनके बारे में बातें हो रही हैं; और जो व्यवहार हो रहा है, वह यह भी बतलाता है कि किस प्रकार से भारत व्यक्तियों एवं परिस्थितियों को पहचानने में गलतियां करता है। वैसे तो अनेक लोगों एवं देश में पहले की परिघटनाओं को समझने-परखने के मामलों में यह होता आया है, लेकिन जिस तरह से मनमोहन सिंह जाते-जाते इन्हें बेपर्दा कर गये हैं, वह भारतीय मानस की बहुत अच्छी पड़ताल करता है।
मनमोहन सिंह कई मायनों में अलग तरह के प्रधानमंत्री थे। सिर्फ इसलिये नहीं कि वे गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से आये थे या कांग्रेस के वे उन गिने-चुने पीएम में से रहे जो नेहरू-गांधी परिवार से सम्बद्ध नहीं थे। उनके पास एक बेहतरीन कार्य अनुभव था जिसके बल पर उन्होंने पहले 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री रहते और फिर 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री के रूप में देश को आर्थिक संकटों से उबारा था। कांग्रेस के खिलाफ जहर उगलने वाली विचारधारा ने जब लोगों को बतलाया कि पिछले 60 वर्षों में देश में कुछ भी नहीं हुआ था, तो उसे एक पीढ़ी ने मान भी लिया क्योंकि जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का काल तो उन्होंने देखा नहीं था, पीवी नरसिंहा राव का समय भी वे भूल गये थे जिस दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे और देश ने आर्थिक उत्थान देखा था। मनमोहन सिंह का पीएम का कार्यकाल वे भूले नहीं थे, लेकिन उनके दिमाग पर एक कुत्सित प्रचार तंत्र ने बताया था कि वह सरकार घोटालेबाज व भ्रष्ट थी। 2014 से आये नये निज़ाम का सारा वक्त लोगों को यही याद दिलाने में बीता। इसलिये अब तक संसद की सारी कार्रवाइयों में वर्तमान दौर की उपलब्धियों पर चर्चा नहीं होती वरन पिछली सरकारों के कथित भ्रष्टाचारों पर बातें होती हैं जिन्हें कभी सिद्ध नहीं किया जा सका। उल्टे ज्यादातर में वे आरोप गलत ही साबित हुए हैं।
इस बीच भारतीय जनता पार्टी, खासकर उसके शीर्ष नेतागण अलग-अलग वक्त में कांग्रेस के विभिन्न नेताओं के बारे में एक स्थायी विमर्श के रूप में यह कहते सुने जाते हैं कि 'कांग्रेस ने इसका सम्मान नहीं किया' या 'उसका सम्मान नहीं किया।' नेहरू के खिलाफ कभी सरदार पटेल को खड़ा किया जाता रहा तो कभी सुभाषचन्द्र बोस को। यह साबित करने के लिये उसे करोड़ों रुपये फूंककर गुजरात में पटेल और इंडिया गेट पर बोस की मूर्ति लगाने से भी गुरेज़ नहीं रहा। हाल के वर्षों में भाजपा ने एक नया नरेटिव चलाया कि 'पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को कांग्रेस ने महत्ता नहीं दी', पर इसी पांसे को जब मनमोहन सिंह के नाम से फेंका गया तो वह उल्टा पड़ गया क्योंकि हाल की पीढ़ी ने खुद ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उन्हें (मनमोहन) पूरे दस साल अपमानित करते हुए देखा है। वह भूला-बिसरा अध्याय नहीं था। हाल की महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और आर्थिक बदहाली के बरक्स लोग पहले से ही मोदी-काल की तुलना मनमोहन-काल से करते पाये गये हैं। सोशल मीडिया पर इसे लेकर मीम्स और कार्टून बनाये जाते हैं। रसोई गैस, पेट्रोल, रुपये की गिरती कीमत सहित बढ़ते दाम, सरकारी कम्पनियों का मोदी के मित्र कारोबारियों की झोलियों में डालना, बढ़ती बेकारी आदि का तुलनात्मक अध्ययन वैसे तो लम्बे समय से जारी रहा लेकिन सिंह साहब के जाते ही इसकी बाढ़ आयी हुई है। अब हर कोई उनके आर्थिक कदमों की सराहना कर रहे हैं।
सम्भवत: डॉ. सिंह की हो रही वाहवाही ने मोदी को चिंतित कर दिया होगा क्योंकि वे दस वर्षों से उन्हें बदनाम करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। संसद हो या उसके बाहर की कोई भी सभा, मोदी का एजेंडा नेहरू के व्यक्तित्व को कोसना तथा मनमोहन के आर्थिक फैसलों की आलोचना करना रहा था। इसके लिये मोदी ने असत्य कथन की सारी सीमाएं लांघी। उन्होंने मनमोहन सिंह के एक बयान को तोड़-मरोड़कर यह तक कहा था कि 'वे देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का मानते थे।' हालांकि उसमें मोदी पूर्णत: गलत साबित हुए थे क्योंकि मूल बयान वैसा था ही नहीं। संसद में मनमोहन सिंह सरकार को भ्रष्ट साबित करने के लिये मोदी यह तक कह गये कि 'पूर्व पीएम रेनकोट पहनकर नहाते थे।' मनमोहन सिंह के निधन के तत्काल बाद से उनके कदमों की जिस तरह से प्रशंसा हुई वह शायद मोदी व भाजपा के लिये चिंता की बात रही होगी। इसलिये मोदी को राष्ट्र के नाम विशेष संदेश प्रसारित कर उनकी तारीफ करनी पड़ी। पहले भाजपा का प्रसार तंत्र उन्हें 'एक परिवार का नौकर', 'मौन मोहन' या 'रिमोट से चलने वाला पीएम' कहती थी, परन्तु अब जब उनके मजबूत एवं जनहित के फैसले सामने आ रहे हैं तो वह विमर्श जनता के बीच उतारने का साहस भाजपा व उसका प्रचार तंत्र अब तक नहीं जुटा पा रहा है। 'कांग्रेस ने उनका महत्व नहीं पहचाना', यह कहना तो दूर की बात है।
इसके बावजूद डरी हुई सरकार ने मनमोहन सिंह की अंत्येष्टि प्रधानमंत्रियों (पूर्व भी) के लिये निर्धारित राजघाट की बजाये निगम बोध घाट पर करना तय किया तो इसकी जबर्दस्त आलोचना हुई जो यह बतलाता है कि जनता का नज़रिया उन्हें लेकर पूरी तरह से बदल गया है। उनकी मौत ने न सिर्फ भाजपा के लिये मुश्किलें खड़ी कीं वरन दूसरी अनेक पार्टियों को भी कठघरे में खड़ा किया है। विशेषकर दिल्ली की आम आदमी पार्टी को, जिसने मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जन लोकपाल आंदोलन खड़ा कर इस सरकार को इतना बदनाम किया कि उसका लाभ भाजपा ले गयी और खुद आंदोलनकारियों का संगठन एक राजनीतिक दल (आप) बन गया। आज आप पार्टी भी मानती है कि मनमोहन सिंह के साथ भाजपा अच्छा सुलूक नहीं कर रही है, लेकिन वह इसका पश्चाताप नहीं कर रही है, और न ही इसके लिये माफ़ी मांग रही है, कि उसने एक अच्छी-भली सरकार को गिराने में अग्रणी भूमिका निभाई। इस आंदोलन के पुरोधा अण्णा हजारे अब 'मनमोहन सिंह को देश हित में काम करने वाला पीएम' बता रहे हैं, तो वहीं आप के अन्य नेता उनके आर्थिक निर्णयों की तारीफ कर रहे हैं। वैसे तो जिस तत्कालीन सीएजी विनोद राय की रिपोर्ट में कथित कोयला घोटाला पाया गया था, उसे काफी पहले सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था, लेकिन किसी ने भी अपने किये पर क्षमा नहीं मांगी। ऐसे सारे तत्वों, संगठनों तथा सियासी दलों को भी जाते-जाते मनमोहन सिंह बेनकाब कर गये।
मुख्यधारा का मीडिया भी कम दोषी नहीं, जिसने यह पहचानने की भूल की कि जन लोकपाल आंदोलन एक जनहित में कार्यरत सरकार को गिराने की भाजपायी साजिश थी जो पूर्ववर्ती सरकार को हराने में दो बार नाकामयाब रही। उसने इस आंदोलन में घुसकर अपना उद्देश्य हासिल किया। इसलिये उसे मनमोहन सिंह की सरकार को बार-बार भ्रष्ट साबित करना ज़रूरी सा हो गया था। विनोद राय की रिपोर्ट गलत होने पर भी मीडिया खामोश रहा जबकि उसे भाजपा-आप की आलोचना करनी थी। दिवंगत डॉ. साहब और कई को बेपर्दा करेंगे। वे कह गये हैं- 'इतिहास उनके प्रति ऐसा निष्ठुर नहीं होगा जैसा आज का मीडिया है।'
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


