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उपचुनावों में तृणमूल की जीत से ममता की इंडिया ब्लॉक में स्थिति मजबूत

पश्चिम बंगाल में छह विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत तृणमूल नेतृत्व की उम्मीदों से भी शानदार रही

उपचुनावों में तृणमूल की जीत से ममता की इंडिया ब्लॉक में स्थिति मजबूत
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- सात्यकी चक्रवर्ती

विपक्षी दलों, खासकर वामपंथियों को उम्मीद थी कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल सरकार के भ्रष्टाचार को निशाना बनाकर किये गये इस उभार का छह निर्वाचन क्षेत्रों में लोगों के चुनावी मूड पर वामपंथियों के पक्ष में असर पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके बजाय, मतदाताओं ने टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी के पक्ष में अपने जनादेश का इस्तेमाल किया। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि वामपंथी उम्मीदवारों की न केवल जमानत जब्त हुई, बल्कि 2021 के विधानसभा चुनावों की तुलना में मतदान के आंकड़े भी काफी कम रहे।

पश्चिम बंगाल में छह विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत तृणमूल नेतृत्व की उम्मीदों से भी शानदार रही। 2021 के विधानसभा चुनावों में छह सीटों में से एक मदारीहाट सीट भाजपा के पास थी, जबकि अन्य पांच सीटें तृणमूल के पास थीं। उपचुनावों में जिसके परिणाम 23 नवंबर को घोषित किए गए, टीएमसी ने न केवल अपनी पांच सीटों को बहुत बड़े अंतर से बरकरार रखा, बल्कि भाजपा की सीट पर उसके उम्मीदवार को 30,000 से अधिक मतों से हराकर सभी छह सीटों पर कब्जा कर लिया। 2021 के चुनावों में भाजपा ने टीएमसी को 29,000 मतों से हराकर मदारीहाट सीट जीती थी।

आरजी कार कॉलेज में एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या से संबंधित दुखद घटना के बाद मतदान हुआ, जिसके कारण डॉक्टरों और आम लोगों की भावनाओं में अभूतपूर्व उछाल आया और पीड़िता के लिए न्याय की मांग की गयी। इस उभार ने एक व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया जिसमें वामपंथी दलों, विशेष रूप से सीपीआई (एम) ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 9 अगस्त से शुरू हुआ आंदोलन 21 अक्टूबर तक जारी रहा, जिस दिन डॉक्टरों ने पश्चिम बंगाल सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बातचीत के बाद अपनी भूख हड़ताल वापस ले ली।

विपक्षी दलों, खासकर वामपंथियों को उम्मीद थी कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल सरकार के भ्रष्टाचार को निशाना बनाकर किये गये इस उभार का छह निर्वाचन क्षेत्रों में लोगों के चुनावी मूड पर वामपंथियों के पक्ष में असर पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके बजाय, मतदाताओं ने टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी के पक्ष में अपने जनादेश का इस्तेमाल किया। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि वामपंथी उम्मीदवारों की न केवल जमानत जब्त हुई, बल्कि 2021 के विधानसभा चुनावों की तुलना में मतदान के आंकड़े भी काफी कम रहे।

वाम मोर्चे के नेता सीपीआई (एम) केवल एक सीट पर चुनाव लड़ी और 2021 की अपनी दो अन्य सीटों पर, पार्टी ने हरोआ में आईएसएफ और नैहाटी में सीपीआई (एमएल) लिबरेशन को चुनाव लड़ने दिया। पार्टी को तलडांगा सीट पर सबसे खराब स्थिति का सामना करना पड़ा, जहां वह चुनाव लड़ी थी। इसका वोट शेयर 4 प्रतिशत से भी कम था। विडंबना यह है कि हरोआ में केवल आईएसएफ उम्मीदवार ही अपनी जमानत बचा सका। इस परिणामों ने वामपंथियों को पूरी तरह से चुनावी जंगल में डाल दिया लगता है।

जहां तक भाजपा का सवाल है,राज्य पार्टी नेतृत्व के पास कोई बहाना नहीं है। टीएमसी के खिलाफ उसके सारे अभियान कोई नतीजा नहीं दे पाये, हालांकि एक को छोड़कर, भाजपा वोटिंग के आंकड़ों के मामले में टीएमसी के बाद दूसरे नंबर की पार्टी बनी हुई है। लेकिन वह दूसरा नंबर बहुत दूर भारी मतों के अन्तर से है। मदारीहाट की इस हार के साथ, राज्य विधानसभा में भाजपा की ताकत 2021 के विधानसभा चुनावों के बाद मिले 77 के मूल स्तर से घटकर लगभग 69 रह गयी है। भाजपा के पास बंगाल में पेश करने के लिए कोई नया कार्यक्रम नहीं है, सिवाय मोदी की गारंटी की बात करने और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में हालिया जीत पर खुशी मनाने के। बंगाल में अगला विधानसभा चुनाव अप्रैल/मई 2026 में होना है। भाजपा को कुछ समझ नहीं आ रहा है। उसके पास 2026 के चुनावों में आक्रामक टीएमसी से लड़ने का कोई रोडमैप नहीं है।

सीपीआई(एम) के बारे में, जिसके पास अभी भी वामपंथी दलों के बीच संगठन का कुछ सादृश्य बचा हुआ है, स्थिति हर साल खराब होती जा रही है। मतदान प्रतिशत कम हो रहा है और नेतृत्व जिस तरह की बात कर रहा है, उसमें कोई बदलाव की संभावना नहीं है। पार्टी कांग्रेस की पूर्व संध्या पर राज्य माकपा सम्मेलन फरवरी 2025 में होने वाला है। पार्टी में और अधिक युवा लोगों को लाने की योजना है, लेकिन अब तक के नतीजे निराशाजनक हैं।

हाल के वर्षों में शामिल हुए माकपा के कुछ युवा सदस्य शहर केंद्रित हैं और आंदोलन में भाग लेने के बजाय सोशल मीडिया के माध्यम से टीएमसी के खिलाफ अपनी लड़ाई पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। पार्टी अल्पसंख्यक जनता के साथ-साथ महिलाओं और उपेक्षित लोगों से भी कट गयी है, जो 1977 में वाम मोर्चे के सत्ता में आने के बाद पहले दो दशकों में पार्टी का प्राथमिक आधार था। पार्टी के पूरे राज्य में बड़े आधुनिक पार्टी कार्यालय हैं, लेकिन बहुत कम पूर्णकालिक सदस्य हैं। यह आकलन करने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया गया है कि टीएमसी कार्यकर्ताओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद कोई अन्य दल को सत्ता क्यों नहीं मिल रही, और मजदूरों सहित हाशिए पर पड़े लोग अभी भी ममता बनर्जी से क्यों चिपके हुए हैं। पार्टी का राज्य नेतृत्व दिशाहीन है।

तृणमूल कांग्रेस की हालिया जीत से पता चलता है कि टीएमसी इंडिया ब्लॉक भागीदारों में एकमात्र पार्टी है जो हाल के वर्षों में सभी चुनावों में लगातार भाजपा को हरा रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 37 सीटें हासिल कीं और लोकसभा में कांग्रेस के बाद भाजपा के खिलाफ चुनावी तौर पर बड़ी ताकत बनकर उभरी। इस बार हुए उपचुनावों में सपा को दो सीटें भी गंवानी पड़ीं। लेकिन 2011 के विधानसभा चुनाव के बाद से टीएमसी का रिकॉर्ड बेदाग है। इस तरह ममता भाजपा के खिलाफ एक बड़ी लड़ाकू के तौर पर इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों के बीच मजबूत होकर उभरी हैं।

यह बहुत संभव है कि कांग्रेस आने वाले महीनों में पार्टी हाईकमान टीएमसी के साथ और अधिक समन्वय करेगा और 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और टीएमसी का गठबंधन हो सकता है। उत्तर बंगाल के चार जिलों में कांग्रेस का कुछ प्रभाव है। टीएमसी और कांग्रेस मिलकर 2026 के चुनावों में उत्तर बंगाल में भाजपा की विधानसभा सीटों को कम करने की स्थिति में हैं। उत्तर बंगाल राज्य में भाजपा का गढ़ है।

टीएमसी नेतृत्व का सकारात्मक पक्ष यह है कि शीर्ष नेता खासकर ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी किसी भी उलटफेर के बाद कमजोरियों की पहचान करते हैं और सुधारात्मक कार्रवाई करते हैं। संगठनात्मक स्तर पर एक सक्रिय मशीनरी है जिसे सलाहकार आई-पैक द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। पार्टी ने पहले ही 2026 के विधानसभा चुनावों के लिए उम्मीदवारों की पहचान करने और जमीनी स्तर से मूल्यांकन के आधार पर पार्टी अभियान में किन कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान देना चाहिए, इसके लिए बुनियादी काम शुरू कर दिया है। इस दृष्टिकोण ने टीएमसी को चुनावी तैयारियों में उसके आकलन ने भाजपा और माकपा जैसे अन्य विपक्षी दलों से काफी आगे रहने में मदद की है।

राज्य की माकपा आखिरकार 2026 के विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी की रणनीति तैयार करने में मदद के लिए बाहर से सलाहकारों की भर्ती करना चाह रही है। माकपा और वामपंथियों के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो ममता बनर्जी की स्वीकार्यता के आसपास भी आ सके। आम लोगों का ध्यान खींचने के लिए पार्टी को एक नये आख्यान के साथ लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा।

बंगाल में वामपंथी परंपरा है। तृणमूल में भी कई लोग वामपंथी अतीत के हैं और अभी भी वामपंथी दृष्टिकोण से चिपके हुए हैं। यदि माकपा का आगामी फरवरी सम्मेलन स्थिति के वस्तुनिष्ठ आकलन के आधार पर एक व्यवहार्य रोडमैप तैयार कर सकता है, तो इससे कम से कम माकपा को 2026 के विधानसभा चुनावों में अपनी स्थिति को शून्य से कुछ सीटों तक सुधारने में मदद मिलेगी। माकपा और वामपंथियों को मध्यम अवधि में राज्य में मुख्य विपक्षी दल के रूप में भाजपा को हटाने का लक्ष्य रखना चाहिए। हो सकता है कि 2026 के चुनावों में ऐसा न हो, लेकिन निश्चित रूप से, यदि उचित अनुवर्ती कार्रवाई की जाये तो वामपंथी 2029 के लोकसभा चुनावों और 2031 के विधानसभा चुनावों में बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं।


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