केरल में जीवन शिक्षा की पहल
केरल के पालक्कड़ जिले के शोरनूर में एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र है, जहां न केवल युवा प्राकृतिक खेती, बुनाई, मिट्टी के बर्तन और शिल्प का हुनर सीख रहे हैं

- बाबा मायाराम
संस्थापक अम्ब्रोज़ कूलियत ने बतलाया कि वर्ष 2017 में इस केन्द्र की शुरूआत की गई। सबसे पहले मित्रों के साथ मिलकर एक ट्रस्ट बनाया गया, फिर 10 एकड़ ज़मीन पट्टे पर ली और प्राकृतिक खेती की शुरूआत की। धीरे-धीरे इसका विस्तार होते गया। अब यहां हथकरघे से कपड़े बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना और हस्तशिल्प की इकाईयां संचालित की जा रही हैं।
केरल के पालक्कड़ जिले के शोरनूर में एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र है, जहां न केवल युवा प्राकृतिक खेती, बुनाई, मिट्टी के बर्तन और शिल्प का हुनर सीख रहे हैं,बल्कि इससे सम्मानजनक आजीविका भी हासिल कर रहे हैं और आत्मनिर्भर बन रहे हैं। आज इस अनूठी पहल की कहानी बताना चाहूंगा, जिससे शिक्षा को समग्रता से समझा जा सके। सिर्फ अल्पकालीन उद्देश्य ही नहीं, बल्कि उसे जीवन में कैसे अपनाया जा सके, यह समझा जा सके।
शोरनूर से 4 किलोमीटर दूर फार्मर शेयर नामक केन्द्र स्थित है। कुछ समय पहले मुझे यहां जाने और इसे देखने-समझने का मौका मिला। उसी अनुभव को यहां साझा कर रहा हूं। केरल को प्रकृति से भरपूर राज्य माना जाता है। इसके बारे में सुनते रहे हैं, पर देखने का मौका कुछ समय पूर्व मिला।
सुबह से शाम तक यहां की दैनंदिन गतिविधियां और प्रकृति के कई रूप देखने को मिले। टेंट में विश्राम के दौरान कीट-पतंगों की फरफराहट, पेड़ों के बीच शांति व एकान्त, सुबह पक्षियों की चहचहाहट, गिलहरियों की उछल-कूद, हवा की सरसराहट, शाम को बारिश, साफ वातावरण, पेड़ों की पत्तियों की चमक और परिसर के मनोरम दृश्य से मेरा साक्षात्कार हुआ।
परिसर में आवाजाही, रसोई कक्ष में दक्षिण भारतीय भोजन की खुशबू, हथकरघे की खट-पट, चाक पर मिट्टी को आकार देती कारीगर महिलाएं, पेड़ों की कटाई-छंटाई, पौधों की निंदाई-गुड़ाई, लाइब्रेरी में अध्ययन, यहां कुछ ऐसी ही गतिविधियां दिनचर्चा की हिस्सा थीं।
चारों ओर हरियाली से घिरा फार्मर शेयर का घर, बहुत ही साधारण चीजों से बना है। इसमें बेकार समझी जाने वाली चीजों का उपयोग किया गया है। जैसे साइकिल के रिम, लकड़ी के टुकड़े, स्टील की फ्रेम, जंगली बीज इत्यादि। दीवारों के पलस्तर में नीम की पत्तियां व तीखी गंधवाली पत्तियां मिला दी गई हैं, जिससे कीट नियंत्रण में मदद मिलती है।
इसके संस्थापक अम्ब्रोज़ कूलियत ने बतलाया कि वर्ष 2017 में इस केन्द्र की शुरूआत की गई। सबसे पहले मित्रों के साथ मिलकर एक ट्रस्ट बनाया गया, फिर 10 एकड़ ज़मीन पट्टे पर ली और प्राकृतिक खेती की शुरूआत की। धीरे-धीरे इसका विस्तार होते गया। अब यहां हथकरघे से कपड़े बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना और हस्तशिल्प की इकाईयां संचालित की जा रही हैं।
वे आगे बताते हैं कि केन्द्र की सोच गांधी के ग्राम स्वराज के विचारों से प्रभावित है। उनका मानना है कि प्रत्येक गांव और इलाके को स्वशासन, आजीविका और संसाधनों के उत्पादन व वितरण में आत्मनिर्भर होना चाहिए। यह केन्द्र इसी की एक छोटी पहल है।
इसके पूर्व उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए कई तरह के काम किए। स्कूली पढ़ाई के बाद उन्होंने निर्माण मिस्त्री का काम किया। स्वाश्रय आंदोलन से जुड़े, जिसके तहत भोजन, रोजगार, स्वास्थ्य और खेती का प्रशिक्षण दिया, कोच्चि में जैविक उत्पादों से बने भोजन का रेस्तरां खोला। इन सब कामों से वे खुश थे, और उनकी इनमें दिलचस्पी भी थी। लेकिन वे आत्मनिर्भर और टिकाऊ समुदाय का मॉडल बनाना चाहते थे,इसलिए फार्मर शेयर की शुरूआत की।
उन्होंने बताया कि फार्मर शेयर में हम एक ऐसी संस्कृति विकसित करना चाहते हैं,जहां संसाधनों का उपयोग इस तरह से किया जाए जिससे पर्यावरण व प्रकृति का नुकसान न हो। और लालच की बजाय जरूरत के आधार पर संसाधनों का उपभोग हो। इसका उद्देश्य स्थानीय लोगों को ऐसे श्रम आधारित कामों से आजीविका उपलब्ध कराना भी है,जिन कामों से उन्हें संतुष्टि व सम्मान मिले।
यहां मुख्य रूप से पर्माकल्चर पद्धति से फूलों की खेती की जाती है। शंखपुष्पी और हिबिस्कस की खेती करते हैं। यहां एक साथ कोई खेत भी नहीं है, जहां भी जगह होती है, वहीं पौधों को उगाया व रोपा जाता है। यहां आलू, कद्दू, भिंडी, बैंगन, सेमी इत्यादि सब्जियां भी होती हैं। इनमें किसी भी प्रकार का रासायनिक खाद व कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता। गोबर खाद का इस्तेमाल किया जाता है। खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। यहां 7 मवेशी हैं, जिसमें गाय भी शामिल हैं।
यहां कई तरह के खाद्य उत्पाद बनाए जाते हैं और बेचे जाते हैं। सूखे केले को शहद के साथ डुबाया जाता और फिर सुखाकर बिक्री की जाती है। इसी प्रकार, अचार, शहद, ताड़ का गुड़, जैम, शरबत पाउडर इत्यादि भी बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। यहां शंखपुष्पी और तुलसी जैसे औषधि पौधे भी हैं।
वे आगे बताते हैं कि हमने हस्तशिल्प पर जोर दिया है। यहां खादी भंडार के सहयोग से 3 हथकरघा स्थापित किए गए हैं, जहां हाथ से बुने सूत से हथकरघा से कपड़ा तैयार किया जाता है। उनकी प्राकृतिक रंगों से रंगाई होती है। यहां बच्चों के अभ्यास के लिए छोटा हथकरघा भी है।
वे बताते हैं कि प्राकृतिक रंगों का उत्पादन और उपयोग पर्यावरण के अनुकूल है, इससे किसी भी प्रकार मानव शरीर को नुकसान नहीं पहुंचता। जबकि सिंथेटिक रंग पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। यह प्राकृतिक रंग पेड़ों की छाल, जामुन,फल, पत्तियों और फूलों से बनाए जाते हैं,फिर इनसे कपड़े रंगे जाते हैं।
हथकरघा इकाई में नजदीक गांव की 3 महिलाएं काम करती हैं। ये सभी तीनों घरेलू महिलाएं हैं, जिन्होंने पहले बाहर काम नहीं किया है। एक महिला प्रतिदिन करीब 2 मीटर कपड़ा तैयार कर लेती है। इस कपड़े को केन्द्र खरीद लेता है और फिर बेचता है। इस कपड़े से शर्ट, सलवार, फ्राक, बैग सभी कुछ बनाए जाते हैं।
यहां कार्यरत महिलाओं ने बताया कि 'पहले मिट्टी के बर्तन बनाने का काम कभी नहीं किया, लेकिन यहां प्रशिक्षण लेकर अब कर रही हैं। इससे उनकी आजीविका अच्छे से चलती है और खुशी भी होती हैं।'
इसके अलावा, एक इकाई कागज बनाने, साबुन बनाने और पुस्तक डिज़ाइनिंग पर शुरूआती शोध कर रही है। हस्तनिर्मित कागज़ बनाते हैं और बेकार कागज और केले के रेशे से लेबल और पैकेजिंग का काम करते हैं।
अम्ब्रोज़ कूलियत विचार व सिद्धांत के प्रति दृढ़ हैं। उन्होंने उनके बच्चों को स्कूल नहीं भेजा। उनका मानना है कि सच्ची शिक्षा जीवन भर के लिए कौशल हासिल करके हो सकती। वह कहते हैं कि आज की शिक्षा पहले के बने बनाए ढांचों में ढलना सिखाती है। उनके दोनों बेटे अमल और अखिल इस पूरे काम में सहयोगी हैं। बड़े बेटे अमल डिज़ाइनर हैं और छोटे बेटे अखिल मिट्टी के बर्तन वाली इकाई के प्रमुख हैं। अम्ब्रोज की पत्नी मिनी अम्ब्रोज़ ने भी इस पूरी पहल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि इस केन्द्र ने लुप्त होते शिल्प को पुनर्जीवित करके और हाशिये पर रहनेवाले समुदायों का समर्थन करके एक उम्मीद जगाई है। प्राकृतिक खेती में मिट्टी-पानी का संरक्षण करके जितनी ज़रूरत है, उतना ही उत्पादन किया। इसमें भी खाद्य चक्र को जहरीले पदार्थों से मुक्त रखा है, यह भी बड़ी सीख है।
इससे यह भी सीखा जा सकता है कि जो उत्पाद लघु व कुटीर स्तर पर गांव कस्बे में बन सकते हैं, उन्हें स्थानीय स्तर पर ही बनाना चाहिए, तभी आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। इससे गांवों में रोजगार बढ़ेंगे व गांववासियों में छिपी हुई रचनात्मकता और प्रतिभा को आगे आने का अवसर मिलेगा।
इस पहल में महिलाओं को जोड़ा जाना बहुत ही महत्वपूर्ण है। पारंपरिक रूप से भी कृषि, पोषण, दस्तकारी में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यदि गांव में रहते हुए भी परिवार अपनी सभी जरूरतें पूरी करने में सक्षम होते हैं तो गांव के दीर्घकालीन विकास व पर्यावरण की रक्षा के लिए यह एक मिसाल है।


