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न्यायपालिका और हिन्दुत्व वर्चस्ववादी परियोजना

दुनिया में जनतंत्र पर मंडराते खतरों की तरफ हाल के समय में बार बार लिखा गया है

न्यायपालिका और हिन्दुत्व वर्चस्ववादी परियोजना
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- सुभाष गाताडे

अपने इस व्याख्यान में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और बाद में भाजपा की अगुवाई में विगत एक दशक से केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के दौरान उच्च अदालतों में हुई नियुक्तियों का भी विवरण दिया था और इस बात को साफ किया था कि किस तरह न्यायपालिका में ऐसे न्यायाधीशों की अधिक नियुक्ति हो रही है, जो फैसला देते हुए संविधान से परे देखने के लिए भी तैयार हों।

दुनिया में जनतंत्र पर मंडराते खतरों की तरफ हाल के समय में बार बार लिखा गया है।

जानकारों ने इस बात को साफ किया है कि किस तरह जनतंत्र का कवच साबित होने वाली उसकी संस्थाओं को अंदर से कमजोर करके , कार्यपालिका, विधायिका या न्यायपालिका को अंदर से खोखला करके या इन सुरक्षा कवच का अपहरण करके भी इसे बखूबी अंजाम दिया जा सकता है।

भारत में जहां हम कार्यपालिका का, अर्थात उसकी विभिन्न संस्थाओं को प्रभावहीन बनाने या उन्हें सत्ताधारी पार्टियों के मातहत करने की परिघटना को बारीकी से देख रहे हैं, मगर अभी तक न्यायपालिका में आ रहे बदलावों की तरफ हमारी निगाहें कम गई हैं।

गौरतलब है कि भारत में ऐसे बहुत कम कानून के विद्वान हैं या वकील हैं जिन्होंने भारत की न्यायपालिका के गति विज्ञान को बारीकी से देखा है और उसके रास्ते हमारे सामने रफ्ता-रफ्ता नमूदार हो रहे ख़तरों की तरफ इशारा किया है। जनाब डा मोहन गोपाल, का नाम ऐसे लोगों में शुमार हैं।

कानून के यह आलिम और प्रैक्टिशनर हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों के नज़रिये के बारे में और उनकी रणनीतियों के बारे में बारीक समझ रखते हैं और संविधान के हिसाब से एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समाजवादी और संप्रभु भारत को हिन्दु राष्ट्र में तब्दील करने के उनके इरादों के बारे में बताते हैं कि 'वह संविधान को उखाड़ फेंक कर नहीं बल्कि सर्वोच्च अदालत द्वारा उसकी एक हिन्दू दस्तावेज के रूप में व्याख्या करके' अमल में लाना चाहते हैं।

कुछ वक्फ़ा पहले 'लाईव लॉ' द्वारा आयोजित एक प्रोग्राम में बोलते हुए उन्होंने उसके गतिविज्ञान को साफ किया था। उनके हिसाब से पहला कदम है:
ऐसे न्यायाधीशों को अदालतों में- खासकर उच्चतम अदालतों में - तैनात करना जो अपने फैसलों के लिए संविधान से परे जाने के लिए तैयार हों, अर्थात जो लोग संविधान प्रदत्त प्रक्रियाओं के बजाय जनता की भावना या उसके एक हिस्से की आस्था की दुहाई देने के लिए भी तैयार हों ;

और दूसरा कदम है: अगर उच्चतम अदालतों में ऐसे न्यायाधीशों की तादाद बढ़ने लगती है जो धर्मशास्त्राीय हो अर्थात जो संविधान के बजाय धर्मशास्त्र में कानून का स्त्रोत ढंूढते हों, तो फिर बेहद आसान हो जाएगा कि भारत को हिन्दू धर्मतंत्र घोषित करना, उसी संविधान के तहत।

अपने इस व्याख्यान में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और बाद में भाजपा की अगुवाई में विगत एक दशक से केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के दौरान उच्च अदालतों में हुई नियुक्तियों का भी विवरण दिया था और इस बात को साफ किया था कि किस तरह न्यायपालिका में ऐसे न्यायाधीशों की अधिक नियुक्ति हो रही है, जो फैसला देते हुए संविधान से परे देखने के लिए भी तैयार हों।

उनके हिसाब से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिजाब मसले पर दिया हुआ बंटा हुआ फैसला इस दिशा में एक अहम मुकाम कहा जा सकता है। वैसे कानून के इस अग्रणी विद्वान को - डा मोहन गोपाल को - इस बात का कतई पूर्वाभास नहीं रहा होगा कि न्यायपालिका के इतिहास में एक दिन ऐसा भी आएगा कि खुद भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक तौर पर इस बात का ऐलान करेगा कि अहम कानूनी फैसलों में कम से कम वह संविधान से कम बल्कि अपनी व्यक्तिगत आस्था या उनके अपने देवता की 'सलाह' पर निर्भर रहते हैं।

ध्यान रहे यह बात उन्होंने अपने पूरे होशोहवास में अपने पुश्तैनी गांव में एक जनसभा में कही। दरअसल मुख्य न्यायाधीश की इस स्वीकारोक्ति का एक दिलचस्प साईड इफेक्ट साफ दिख रहा है। वह है बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सामने आए विवादास्पद फैसले के अब तक 'अज्ञात' रहे पहलू का।
मालूम हो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के तहत बनी पांच सदस्यीय पीठ ने इस फैसले दौरान कुछ बातें बिल्कुल साफ की थी कि वर्ष 1948 में तत्कालीन बाबरी मस्जिद में दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा चोरी से राम की मूर्तियां स्थापित करने का काम 'गैरकानूनी' था तथा 1992 में जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस को अंजाम दिया गया तो वह 'खुल्लमखुल्ला कानून केराज का उल्लंघन'' था। यह अलग बात है कि आला अदालत ने उन्हीं उल्लंघनकर्ताओं को उसी विवादास्पद स्थान पर मंदिर बनाने का जिम्मा सौंपा था।

याद रहे भले ही पांच सदस्यीय पीठ ने इस फैसले को अंजाम दिया हो, मगर इस पर किसी के दस्तख़त नहीं थे। शायद आज़ाद हिन्दोस्तां का यह पहला मुकदमा रहा होगा, जहां औपचारिक तौर पर उसका कोई एक 'ऑथर अर्थात प्रदत्त करने वाला नहीं है।'

अब तक इसकी कोई वजह साफ नहीं थी कि पांच गणमान्यों में से किसी ने भी इस पर अपने दस्तख़त क्यों नहीं किए, यह कहा जा सकता है कि जिस तरह वेदों को अपौरूषेय अर्थात ईश्वर द्वारा निर्मित कहा जाता है तो शायद भविष्य की पीढ़ियां भी इस मसले पर यही कहें।

कहा जाता है कि एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति, अपने ईश्वर/खुदा के साथ अपने संवाद को, अपनी प्रार्थना को बेहद निजी मामला बनाए रखना चाहता है ताकि उसमें कोई विघ्न न आए। यह अलग बात है कि मुख्य न्यायाधीश जनाब चंद्रचूड़ द्वारा जिस तरह प्रधानमंत्री को पूजा के लिए आमंत्रित किया गया और फिर इस निजी आयोजन को पूरी तरह सार्वजनिक किया गया, सरकार से सम्बद्ध गोदी चैनलों ने उसका पूरा प्रसारण करने दिया गया, इसका अर्थ यही निकलता है कि प्रधानमंत्री मोदी और निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश में भी एक अन्य समानता है।

दोनों अपने इस निजी प्रसंगों का सार्वजनिक प्रदर्शन करने में कोई गुरेज नहीं होता बल्कि दोनों इसे चाहते हैं।
अभी ज्यादा महीना नहीं बीता जब मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर को भेंट दी थी, जहां वह हल्का केसरिया वस्त्र भी पहने दिख रहे थे। मंदिर की यात्रा छिपी रह जाती, अगर उसके बाद उन्होंने राजकोट में अदालत की नयी इमारत के उद्घाटन के अवसर पर कुछ विवादास्पद बातें नहीं कही होती।

संविधान की कसम खाकर मुख्य न्यायाधीश बने जनाब चंद्रचूड़ ने उद्घाटन के अवसर पर कहा कि किस तरह वह द्वारकाधीश मंदिर के ध्वज से प्रेरित हुए थे - जो जगन्नाथ पुरी में लगे ध्वज की तरह ही था और किस तरह यह ध्वज 'हमारे राष्ट्र की सार्वभौमिकता की परम्परा की नुमाइन्दगी करते हैं, जिसने हमें एक साथ जोड़े रखा है'
वैसे यह आकलन करने के लिए अधिक विवेक की जरूरत नहीं है कि भारत जैसे एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में - जिसने स्वाधीनता हासिल करने के बाद से ही सर्व धर्म समभाव की नीति अपनायी है, धर्म के आधार पर, सम्प्रदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करने का संकल्प लिया है - जहां तिरंगा एकमात्र ऐसा ध्वज समझा जाता है जो हम सभी को जोड़े रखता है, वहां एक संवैधानिक अॅथॉरिटी द्वारा खास धर्म के ध्वज की हिमायत करना, निश्चित ही उसकी मर्यादा का उल्लंघन कहा जा सकता है।

जनाब चंद्रचूड़ के बारे में यह कहा जाता है कि अपने सार्वजनिक व्याख्यानों में वह न केवल अद्भ्ुत वक्ता के तौर पर दिखते हैं बल्कि वहां पर वह हमेशा ही संविधान के सिद्धांतों एवं मूल्यों की हिफाजत करने पर जोर दते हैं, मातहत अदालतों द्वारा अभियुक्तों को जमानत दिए जाने के मामले में विलंब करने पर उन्होंने एक तरह से उनकी आलोचना भी की है कि उन्हें 'जमानत की नियम है, अपवाद नहीं' इस समझदारी पर चलना होगा। यह अलग बात है कि उनके इस कार्यकाल में ही उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों के कई अभियुक्त - चार साल से जेल में ही बिना जमानत के सड़ रहे हैं। यह एक ऐसा मसला है कि जिसकी ओर दुनिया की निगाह गयी है।

अब जनाब चंद्रचूड़ का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और अख़बारी रिपोर्टों के मुताबिक वह इस बात के प्रति ' बेचैन हैं कि इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा।
वैसे इस काम को हम कानूनविदों और भविष्य के इतिहासकारों के लिए छोड़ सकते हैं,लेकिन जैसा कि एक विश्लेषक ने लिखा है कि 'इतिहास इस बात को जरूर याद रखेगा कि भारत में जनतंत्र का जब क्षरण हो रहा था, जब संकीर्णमना ताकतें उसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को छीजने में सक्रिय थी, उन दिनों वह लगभग मौन गवाह रहे।'
वैसे भारत में जनतंत्र की यह नियति - जहां हम उसके रक्षाकवचों के क्षरण के प्रक्रिया को हमारे सामने देख रहे हैं - विधायिका, कार्यपालिका और अब न्यायपालिका के एक किस्म के छिजन की परिघटना हमारे सामने घटित हो रही है - तब हम इस बात का भी आकलन कर सकते हैं कि हमारे सामने चुनौती कितनी बड़ी है।


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