कन्याकुमारी की यात्रा और समुद्र की पीड़ा
साक्षरता अभियान के दौरान देश भर में जन विज्ञान जत्थों ने नुक्कड़ नाटक, साहित्य, पर्चे व जागरूकता सामग्री के जरिए साक्षरता का संदेश दिया था

- बाबा मायाराम
साक्षरता अभियान के दौरान देश भर में जन विज्ञान जत्थों ने नुक्कड़ नाटक, साहित्य, पर्चे व जागरूकता सामग्री के जरिए साक्षरता का संदेश दिया था। साक्षरता अभियान का असर यह देखा जा सकता है कि शिक्षा की जरूरत को देश में महसूस किया गया।
हाल ही में मेरा तमिलनाडु जाना हुआ। इस बार कन्याकुमारी का प्रवास था। यहां समुद्र तट सुबह सवेरे सैर करना, सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा देखना अपने आपमें अद्भुत है, बहुत ही खूबसूरत है। कन्याकुमारी में तो इसलिए भी इसकी सुंदरता बढ़ जाती है, क्योंकि यहां तीन समुद्रों का संगम होता है। लेकिन जब हम समुद्रों की पीड़ा देखते हैं तो यह रोमांच काफूर भी हो जाता है। आज इस कॉलम में इसी यात्रा से जुड़े कुछ अनुभव साझा करना चाहूंगा, जिससे दक्षिण की प्राकृतिक सुंदरता के साथ, समुद्र की पीड़ा, और वहां के जनजीवन की भी झलक मिल सके।
मैं यहां लम्बी ट्रेन यात्रा करके पहुंचा था। कन्याकुमारी, हमारे देश का अंतिम छोर है। यहां अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर का संगम स्थल है। यहां सूर्योदय व सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य दिखाई देते हैं। मैंने तीन दिनों तक विशाल सागर के दर्शन किए और मनोरम दृश्य की कई छटाएं देखीं। समुद्र तट पर सुबह व शाम की सैर भी की। यह कई मायनों में यादगार यात्रा रही।
यहां समुद्र तट के पास ही स्वामी विवेकानंद रॉक, तिरूवल्लुवर प्रतिमा भी है। दूर-दूर तक फैला विशाल सागर, उसमें उठती-बैठती समुद्री लहरें, समुद्र तटों से टकराती उसकी आवाजें, नीले हरे समंदर की मनमोहक छटाएं। ऐसा लगता है जैसे घंटों निहारते रहो।
कन्याकुमारी का हरा-भरा परिवेश, यात्रा के दौरान नारियल के लहराते पेड़, केला और रबर के पेड़ मोहते हैं। जगह-जगह तालाब भी हैं। तालाबों में कमल खिले हुए थे। लोगों के घरों में भी अच्छे किचिन गार्डन थे। केले के पेड़ तो सभी घरों में दिखाई दिए।
मैं यहां विकल्प संगम की बैठक में शामिल हुआ। विकल्प संगम, एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें क्षेत्रीय और मुद्दों पर अलग-अलग हिस्सों में गोष्ठियां होती हैं। वैकल्पिक करने वाले जो समुदाय, व्यक्ति, समूह और संस्थाएं काम कर रही हैं, उनके अनुभव सुने-समझे जाते हैं और एक दूसरे से सीखा जाता है। इसके माध्यम से आपस में विचारों का आदान-प्रदान करने, गठजोड़ मजबूत करने और मिलजुल कर बेहतर भविष्य बनाने की कोशिश की जाती है। यहां आर्थिक संगम आयोजित किया गया था।
यात्रा के दौरान मैंने दक्षिण भारतीय भोजन का आनंद लिया। जिसमें दाल, पायसम, गुडादाल, अबीइल, रस्म, केसरी, इडली सांभर, दोसा, वड़ा, पकोड़ा, चटनी इत्यादि शामिल थे।
इस दौरान, मैं स्थानीय महिला संगठन मालार के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं से भी मिला। मालार यानी ( महालिर एसोसिएशन फॉर लिटरेसी अवेयरनेस एंड राइट्स), यह एक महिला संगठन है, जो संपूर्ण साक्षरता अभियान के बाद सामाजिक गतिविधियों से उभरा है। उनके मुख्य कार्यालय नागरकोइल में गया। उनकी बस्ती में जाकर उनके सदस्यों से मिला। इस संगठन के करीब 2000 बचत समूह हैं, जिनसे 30,000 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हैं।
इस संगठन ने महिलाओं को एकजुट करना, फिजूलखर्ची कम करना और बचत करना। छोटे-छोटे ऋणों के माध्यम से सामाजिक आर्थिक विकास करना। सामाजिक और आर्थिक मुद्दों में शामिल होना। महिला नेतृत्व के विकास पर जोर दिया है। उन्हें आत्मनिर्भऱ बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मलार के काम को समझने के लिए फील्ड विजिट भी की गई।
मैं नागरकोइल की एक बस्ती में भी गया। वहां की महिलाओं ने बताया कि उनका बचत समूह 25 साल से चल रहा है। उनके समूह में 20 सदस्य हैं। हर हफ्ते प्रति सदस्य 100 रूपए जमा करते हैं, यानी प्रति माह 400 रूपए। यह राशि जमा होती है और सदस्यों को जरूरत पड़ने पर ऋ ण के रूप में दी जाती है। सब्जी विक्रेता, डेयरी, सिलाई, मुर्गीपालन, मत्स्य पालन इत्यादि कामों के लिए ऋ ण दिए जाते हैं।
इस सबका बहुत ही अच्छा असर देखने को मिल रहा है। महिलाओं के अनुसार वे आत्मनिर्भर बन रही हैं, और उनके जीवन पर सकारात्मक असर पड़ रहा है। रोजगार के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य बुनियादी सुविधाओं में भी काफी सुधार हुआ है। उन्होंने कई मुद्दों पर संघर्ष भी किया है।
इस दौरान साक्षरता अभियान की याद आई। 90 के दशक में साक्षरता अभियान में केरल की अग्रणी भूमिका थी। यह राज्य शिक्षा में तो आगे है ही, कई सामाजिक व पर्यावरणीय मुद्दों पर भी सक्रिय रहा है। केरल, कन्याकुमारी के पड़ोस में ही है।
साक्षरता अभियान के दौरान देश भर में जन विज्ञान जत्थों ने नुक्कड़ नाटक, साहित्य, पर्चे व जागरूकता सामग्री के जरिए साक्षरता का संदेश दिया था। साक्षरता अभियान का असर यह देखा जा सकता है कि शिक्षा की जरूरत को देश में महसूस किया गया। और शिक्षा के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा। बच्चों का स्कूल में आना भी बढ़ा।
कन्याकुमारी प्रवास के दौरान समुद्र तट के किनारे सुबह-शाम सैर करने का मौका मिला। लेकिन वहां फैले प्रदूषण ने मुझे चिंता में डाला। वैसे तो कचरा संस्कृति अब हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है। ट्रेन में यात्रा करते समय रेल पटरियों के दोनों ओर प्लास्टिक, पन्नियां व पानी की बोतलें पड़ी रहती हैं। शहर व कस्बे में कचरों के ढेर आम बात है। छोटी-छोटी पन्नियों में खाने पीने की चीजें मिलना, यह सब कचरा संस्कृति के हिस्से हैं। यह सब खटकता है। स्वच्छता अभियान से इस बारे में कुछ हद तक जागरूकता आई है, लेकिन इसे जारी रखने की जरूरत है।
लेकिन समुद्री प्रदूषण इससे बड़ी समस्या है। यह कई मायनों में विनाशकारी है। यहां लोगों ने बताया कि पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं और प्रदूषण व कचरे की समस्या बढ़ती जा रही है। यह तो एक समस्या है। इसके अलावा भी हमने समुद्रों को कूड़ेदान में बदल दिया है। समुद्री जीवन को संकट में डाला है।
समुद्र से मनुष्य का रिश्ता अभिन्न रहा है। वह विविधता व गहराई के रहस्यों के लिए सदैव ही जिज्ञासा व आश्चर्य का विषय रहा है। यह कई प्रजातियों की मछलियों, कछुए, केकड़े व जल जीवों का स्थल हैं। समुद्र में ही पहले जीवन पनपा है, ऐसा बताया जाता है। मौसम चक्र भी समुद्र पर निर्भर है। धरती का जीवन भी कई मायनों में समुद्र से जुड़ा है।
इन दिनों जलवायु बदलाव एक बहुत ही ज्वलंत मुद्दा है। समुद्री तूफान भी खबर बनते हैं। कुछ साल पहले कन्याकुमारी में भी चक्रवाती तूफान ने तबाही मचाई थी। इसमें बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए थे। जान-माल का नुकसान हुआ था। कहा जा रहा है कि जैसे-जैसे जलवायु बदलाव का असर बढ़ेगा, समुद्र तटों के आसपास का जीवन इससे प्रभावित होगा।
इसके अलावा, समुद्री जीवों व विविधतापूर्ण जीवों को सदैव ही प्रदूषण से खतरा बना रहता है। कुछ दशकों पहले केरल में मछुआरों ने बड़े- बड़े ट्रालरों से मछली पकड़ने पर रोक लगाने को लेकर आंदोलन किया था, जो अखबारों की सुर्खियां बना था। उनका कहना था कि इससे जल जीवों को नुकसान होता है। और इससे प्रदूषण भी होता है। उन्होंने पारंपरिक तरीके से मछली पकड़ने की पैरवी भी की थी,जिसमें ज्यादा नुकसान नहीं होता।
प्रदूषण से समुद्री जीवन की विविधता खतरे में है। खेती के कीटनाशक, होटल व रिसॉर्ट, औद्योगिक व घरेलू कचरा भी समुद्र के लिए खतरा है। इसके साथ मानवीय गतिविधियां भी समुद्र के किनारे बढ़ रही हैं। समुद्रों की पीड़ा भी मनुष्य से ज्यादा है। इस बारे में चेतना जरूरी है।
कुल मिलाकर, इस यात्रा के दौरान जब मैं महिला संगठन के सदस्यों से मिला, तो यह एहसास हुआ कि सामाजिक परिवर्तन संभव है, जैसा कि महिलाओं ने कर दिखाया है। छोटी-छोटी बचतों से वे आत्मनिर्भर भी बनी, और सामाजिक सुधार के लिए काम कर रही हैं। समुद्र की पीड़ा देखी तो इसी तरह की पहल की जरूरत महसूस हुई। क्या हम इस दिशा में कुछ कर सकते हैं?


