मोदी-जिनपिंग वार्ता : ईमानदार अमल ज़रूरी
रूस के कजान में चल रही ब्रिक्स की बैठक के दौरान मिले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई वार्ता के कई सकारात्मक बिंदु हैं

रूस के कजान में चल रही ब्रिक्स की बैठक के दौरान मिले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई वार्ता के कई सकारात्मक बिंदु हैं, बशर्तें कि उनका ईमानदारी से पालन हो। इस वार्ता में जिन बातों को लेकर सहमति बनी है, उन पर अगर बराबरी के स्तर पर क्रियान्वयन हो तो भारत को कहीं ज्यादा फायदा होगा। पिछले 10 वर्षों में इन दो पड़ोसी मुल्कों के रार्ष्ट्राध्यक्षों की कहने को तो 20 मुलाकातें हो चुकी हैं परन्तु दोनों के बीच स्थायी शांति के माहौल के कोई चिन्ह तक दिखाई तक नहीं देते। चीन ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में न केवल बड़े भूभाग पर अतिक्रमण किया हुआ है बल्कि व्यापारिक तौर पर देखें तो उसे भारत से ही बड़ा मुनाफा हो रहा है। परस्पर आयात-निर्यात में बड़ा अंतर है।
यानी जितनी मात्रा में चीन भारत को विभिन्न तरह की वस्तुओं का निर्यात कर रहा है, उसके मुकाबले भारत का उस देश को निर्यात बहुत कम है। हालांकि इसमें चीन इसलिये मददगार साबित नहीं हो सकता क्योंकि भारत की निर्माण एवं उत्पादन की क्षमता ही वैसी नहीं है जो चीन का मुकाबला कर सके। इन सबके बावजूद कूटनीतिक व रणनीतिक तौर पर 'लाल ड्रैगन' कहे जाने वाले देश के साथ भारत के सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध समय की ज़रूरत है। उसकी विस्तारवादी नीति पर भारत अन्य देशों को साथ लेकर ही रोक लगा सकता है।
इसके बावजूद मोदी-जिनपिंग वार्ता के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। आबादी के मामले में दुनिया के सबसे बड़े दो देशों के बीच अच्छे और सहयोगात्मक रिश्ते दुनिया के लिये तो मायने रखें या न रखें, भारत के लिये नितांत ज़रूरी हैं। इस वार्ता में विकास को साझा लक्ष्य निरूपित किय़ा गया है। भारत के चीन से व्यवसायिक सम्बन्ध भी अच्छे होने चाहिये ताकि दोनों देश मिल-जुलकर विकास करें। वैसे इसका सीधा सम्बन्ध दोनों देशों के बीच वास्तविक रूप से शांतिपूर्ण और विवादरहित वातावरण से है। दोनों देशों की सीमाओं पर पिछले करीब 5 वर्षों से तनातनी है।
अनेक क्षेत्रों पर चीन द्वारा घुसपैठ की शिकायतें हैं। खासकर गलवान क्षेत्र में तो दावा किया जाता है कि कई किलोमीटर तक चीनी सीमाएं न केवल घुस आई हैं वरन उन्होंने भारतीय सीमा सुरक्षा बलों को गश्त लगाने से भी मना कर रखा था। अपनी विश्वगुरु की छवि बनाने तथा पीएम बनने के पहले 'चीन को लाल आंखें' दिखाने जैसे बड़बोलेपन ने मोदी को इस कदर मजबूर कर दिया था कि उन्होंने इस बात से ही इंकार कर दिया था कि चीन ने कोई घुसपैठ की है। उन्होंने संसद में यहां तक कहा कि 'न तो कोई सीमा में घुसा है, न ही घुसा था। इससे चीन का साहस इस कदर बढ़ा कि उसने अनेक भारतीय क्षेत्रों में न केवल अपनी बस्तियां बसा लीं वरन हेलीपैड तक बना डाला। इतना ही नहीं, चीन भारत के सीमावर्ती राज्य अरूणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा पेश करता रहा है। यह अच्छी बात है कि दोनों देश अब अपनी-अपनी सेनाओं को पीछे हटाएंगे। हालांकि यह अब भी अंधेरे में है कि आखिर चीनी सीमा कितने पीछे हटेगी जो पिछले कुछ वर्षों में काफी आगे तक बढ़ आई है और यह भी साफ हो कि भारतीय सीमा कितनी पीछे हटेगी जो पहले से पीछे हटी हुई है।
इस वार्ता का एक अच्छा पहलू यह भी है कि स्वयं चीनी राष्ट्रपति ने इस बात पर जोर दिया कि उभय देशों को संयुक्त राजनीतिक धारणा बनानी चाहिये। उन्हें सद्भावनापूर्वक विकास के लिये सही तथा सकारात्मक मार्ग खोजने चाहिये। दूसरी तरफ़ नरेन्द्र मोदी ने भी भारत-चीन सम्बन्धों को क्षेत्रीय व वैश्विक शांति तथा स्थिरता के लिये महत्वपूर्ण बताया। उनका यह कहना अहम है कि परस्पर विश्वास, एक-दूसरे के लिये सम्मान एवं संवेदनशीलता सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्धों का आधार होंगे।
इस एक दशक में कभी गर्म कभी नर्म सम्बन्धों के बावजूद दोनों देशों के बीच व्यवसायिक हितों के सम्बन्ध बने हुए हैं। इसमें एक ओर तो स्वयं मोदी की गलती है जो गुट निरपेक्षता की राह को छोड़कर पश्चिमी व बड़े देशों, खासकर अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के साथ सम्बन्ध बनाने में ज्यादा रुचि लेते रहे, तो दूसरी ओर मोदी की भारतीय जनता पार्टी के नेताओं एवं उसके आईटी सेल सहित असंख्य कार्यकर्ताओँ ने चीन के प्रति देश में नकारात्मक वातावरण बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिवाली पर वहां की झालरों व बल्बों, होली की पिचकारियों के बहिष्कार तथा कुछ एप्स पर प्रतिबंध जैसे बचकाने अभियान चलाये गये। इन सबसे चीन का तो विशेष कुछ नहीं बिगड़ा, उल्टे भारत से चीन को होने वाला थोड़ा बहुत निर्यात या यहां से चीन में जाकर काम करने वाले व्यवसायियों के कारोबार ठप हो गये। चीन के भारत में बड़े निर्माण एवं ठेके बदस्तूर जारी रहे। अब इस वार्ता से उम्मीद की जा रही है कि यह व्यवसाय पटरी पर लौट आये। शी जिनपिंग ने इस बात को स्पष्ट किया कि 'दोनों देश प्रतिस्पर्धी नहीं वरन सहयोगी हैं।'
ये ऐसे सारे सकारात्मक बिन्दु हैं जिन पर दोनों देश यदि साथ-साथ ईमादारी से पहल करें तो दोनों ही देशों को फायदा हो सकता है। चीन चाहे भारत से आगे निकल गया हो परन्तु दोनों देशों को सीमाओं पर शांति तथा सौहार्द्र से विकास की नयी इबारत लिखी जा सकती है। भारत को एक परिपक्व कूटनीति का परिचय देते हुए तथा इतिहास को भूलकर, लेकिन बेहद सावधानी से आगे बढ़ना होगा। इसी में दोनों का हित है।


