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क्या सचमुच यह विकसित भारत का बजट है?

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मोर्चों पर गंभीर समस्याओं का सामना कर रही है

क्या सचमुच यह विकसित भारत का बजट है?
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- डॉ. इंदिरा हिरवे

बजट में जहां यह निराशा कई मोर्चों पर है, वहीं कुछ बड़ी घोषणाएं भी हैं। उनमें से एक आयकर दरों में छूट है- 12 लाख रुपये तक की व्यक्तिगत आय पर कोई कर नहीं लगेगा। यह निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाएगा और आर्थिक विकास को बढ़ावा देगा। इस कर छूट के माध्यम से अर्थव्यवस्था में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये जुड़ेगें और इसका अच्छा गुणात्मक प्रभाव होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मोर्चों पर गंभीर समस्याओं का सामना कर रही है। यह वास्तविक स्थिति है जो विकसित भारत की दृष्टि के विपरीत है। इसके साथ ही विकसित भारत 2047 का सपना 25 साल से भी कम दूर है। इस बजट में 1991 की तरह एक और बदलाव की उम्मीद थी लेकिन बजट ने बुरी तरह निराश किया है।

बजट में जहां यह निराशा कई मोर्चों पर है, वहीं कुछ बड़ी घोषणाएं भी हैं। उनमें से एक आयकर दरों में छूट है- 12 लाख रुपये तक की व्यक्तिगत आय पर कोई कर नहीं लगेगा। यह निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाएगा और आर्थिक विकास को बढ़ावा देगा। इस कर छूट के माध्यम से अर्थव्यवस्था में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये जुड़ेगें और इसका अच्छा गुणात्मक प्रभाव होगा। हालांकि इसका सीमित असर होगा जो हमारी 330 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था के भीतर होगा। लगभग 3.5 करोड़ आयकर दाता मांग में आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर सकते।

बजट का एक और सकारात्मक बिंदु कृषि पर ध्यान केंद्रित करना है क्योंकि यह 'अर्थव्यवस्था का प्रमुख संचालक' है। इस बजट में राष्ट्रीय उच्च उपज वाले बीज मिशन, धन-धान्य कृषि योजना, दलहन को प्रोत्साहन और कपास मिशन आदि कार्यक्रम प्रस्तावित हैं किन्तु कृषि के लिए आवंटित धन राशि में बहुत मामूली वृद्धि हुई है। इसकी वजह से इन नए कार्यक्रमों का प्रभाव बहुत कम पड़ने की संभावना है।

इसके अलावा बजट में 'लोगों पर निवेश' पर ध्यान केंद्रित करना भी अपेक्षित है। इसके बावजूद स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए आबंटित निधियों में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई है। यद्यपि कई योजनाएं प्रस्तुत की गई हैं फिर भी इन योजनाओं को प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त निधि उपलब्ध नहीं कराई गई है। शिक्षा के मामले को देखें तो 2024-2025 के बजट में 125638 करोड़ रुपये दिए गए थे और वर्ष 2025-2026 के लिए 128650 करोड़ रुपये आवंटित किए गए यानी सिर्फ 3012 करोड़ रुपये दिए गए जो वास्तविक रूप से गिरावट को दर्शाता है।

इसी तरह स्वास्थ्य के लिए बजट में 98311 करोड़ रुपये की वृद्धि का अर्थ वास्तविक अर्थों में मामूली वृद्धि ही है। हालांकि गिग वर्कर्स को (गिग अर्थव्यवस्था एक मुक्च बाडार प्रणाली है जिसमें श्रमिकों के साथ अस्थायी अनुबंध होता है और संगठन अल्पकालिक जुड़ाव के लिये स्वतंत्र श्रमिकों के साथ अनुबंध करते हैं) बीमा के दायरे में लाना और मेडिकल शिक्षा में सीटें बढ़ाना सही दिशा में उठाया गया अच्छा कदम है परन्तु अतिरिक्त फंड के बिना ये कार्यक्रम शायद प्रभावी न हों। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि बीमा पर सरकार के ध्यान का परिणाम यह हुआ है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपेक्षा हो रही है। लोगों को केवल ऐसी बीमा सुरक्षा नहीं चाहिए जो केवल अस्पताल में भर्ती होने पर ही सुलभ होती है, वे इसके साथ ही अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं चाहते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में देखें तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में प्राथमिक स्वास्थ्य के लिए बजट आबंटन में वास्तविक अर्थों में कमी आई है। यह तर्क दिया जाता है कि राज्य सरकारों से इन दो क्षेत्रों पर अधिक खर्च करने की उम्मीद की जाती है लेकिन हकीकत यह है कि अधिकांश राज्य इन क्षेत्रों पर पर्याप्त खर्च नहीं कर रहे हैं। स्वस्थ मानव पूंजी के बिना एक तरफ आर्थिक विकास प्रभावित होगा और दूसरी तरफ लोगों की कल्याण योजनाएं बुरी तरह प्रभावित होंगी।

बजट के विश्लेषण से पता चलता है कि मनरेगा जैसी योजनाओं सहित आदिवासी विकास, सामाजिक कल्याण एवं ग्रामीण विकास के लिए आवंटित धन में भी मामूली या वास्तविक रूप से गिरावट आई है। इसके अतिरिक्त पीएम पोषण योजना, स्वच्छता मिशन, पीएम सड़क योजना, मत्स्य पालन, जल जीवन मिशन, पीएम शहरी आवास योजना तथा कई अन्य ऐसी योजनाएं व कार्यक्रमों के लिए भी, जो हमारे समाज के गरीब और कमजोर वर्गों के उत्थान से संबंधित हैं, धन आवंटन में नाममात्र या वास्तविक रूप से गिरावट आई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में इन कार्यक्रमों के लिए आवंटित निधियां भी अत्यधिक कम खर्च की गई हैं। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि गरीबों के पक्ष में बने इन कार्यक्रमों के प्रति सरकार गंभीर नहीं है।

उत्पादक रोजगार प्रदान करने के क्षेत्र में सरकार बहुत सफल नहीं रही है। वैसे इसने पिछले बजट में इंटर्नशिप के साथ अप्रेंटिसशिप कार्यक्रम की घोषणा कर एक सकारात्मक कदम उठाया था, लेकिन सरकार पिछले साल इस योजना के लिए आवंटित 2000 करोड़ रुपये में से केवल 300 करोड़ रुपये ही खर्च कर सकी। यह शायद इस क्षेत्र के लिए सरकार की कम प्रतिबद्धता की वास्तविकता को प्रकट करता है। इस साल फिर से सरकार ने इस योजना को बढ़ावा देने का फैसला किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि वह इस वर्ष इसके प्रति अधिक प्रतिबद्ध होगी।
एक तरफ कॉर्पोरेट क्षेत्र को भारी वित्तीय प्रोत्साहन, उनके ऋ णों को माफ करने और अक्सर उनके कर चोरी से उत्पन्न वित्तीय बाधाओं और दूसरी तरफ राजकोषीय घाटे को कम करने के दबाव को देखते हुए बजट में इस वर्ष 4.4 फीसदी के राजकोषीय अनुपात की घोषणा की है। यह स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में राजकोषीय स्थान को बढ़ाने के लिए सरकार को नीतियां मौलिक रूप से बदलनी होंगी अन्यथा ये वित्तीय बाधाएं रोजगार और विकास सहित सामाजिक क्षेत्रों पर सार्वजनिक व्यय को सीमित कर देंगी।

कुल मिलाकर, भारत को विकसित अर्थव्यवस्था बनने के लिए लगातार 25 वर्षों तक 7 से 8 प्रतिशत विकास दर की जरूरत है। यह वर्तमान में विश्वसनीय या संभव प्रतीत नहीं होता। ऐसा लगता है कि सरकार न तो विकसित भारत शब्द को स्पष्ट और विस्तार से परिभाषित कर पाई है और न ही विकसित भारत का मार्ग तैयार कर पाई है। भारत को आज प्रति व्यक्ति आय 2697 डॉलर से 23380 डॉलर (आईएलओ का बेंचमार्क) तक ले जाने के लिए एक अलग विकास मार्ग की आवश्यकता है। एक ही दृष्टिकोण को अपनाना अधिक फलदायी नहीं होगा।

आर्थिक सर्वेक्षण में भरोसे की कमी को हमारे विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में उजागर किया गया है किन्तु बजट में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है कि इस घाटे को कैसे दूर किया जाएगा। सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि 'कोई भी पीछे न छूट' लेकिन बजट में ऐसा कुछ नहीं है जो हमें इसका आश्वासन दे सके। देश में बढ़ती असमानताओं को सरासर नजरंदाज किया गया है। एक छोटे किन्तु अधिक समृद्ध वर्ग की चिंताओं को कवर किया गया है जबकि सबसे गरीब सहित बाकी सभी अप्रत्यक्ष करों के अधीन हैं- यानी आयकर में सुधार किया गया है लेकिन हमें नहीं पता कि जीएसटी की क्या स्थिति होगी?

वास्तव में समस्या यह है कि किसी भी नीति या कार्यक्रम पर कोई खुली और स्वतंत्र चर्चा नहीं होती; विशेषज्ञों द्वारा इन नीतियों और कार्यक्रमों का कोई वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन नहीं किया जाता। इस खुलेपन के बिना हमें पता नहीं चलेगा कि वस्तुत: विकसित भारत का क्या मतलब है और वहां कैसे पहुंचा जाए।
(लेखिका अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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