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क्या कांग्रेस का गठबन्धन से निकलने का वक्तआ चला है?

इस बात से सभी की सैद्धांतिक सहमति है; और समझदारी भी इसी में है कि भारतीय जनता पार्टी को हराना है तो सभी विपक्षी दलों को सम्मिलित मुकाबला करना होगा

क्या कांग्रेस का गठबन्धन से निकलने का वक्तआ चला है?
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- डॉ. दीपक पाचपोर

तालमेल का अलग-अलग पैटर्न ही इसकी कमजोरी है। इसके चलते उसके उन उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता जो इसके गठन के दर्मियान सोचे गये थे। ऐसे में जब कटिहार के सांसद तारिक अनवर उपरोक्त सवाल करते हैं तो सम्भवत: निराशा के चलते उन्होंने यह मुद्दा उठाया होगा कि आधे-अधूरे गठबन्धन से बेहतर है कि अकेले लड़ा जाये।

इस बात से सभी की सैद्धांतिक सहमति है; और समझदारी भी इसी में है कि भारतीय जनता पार्टी को हराना है तो सभी विपक्षी दलों को सम्मिलित मुकाबला करना होगा। 2014-19 एवं 2019-24 के लिये हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता का राज यही था कि वह अपने विरोधियों के मतों को बांटने में सफल रही थी। इस बात को तमाम राजनीतिक दल भांप चुके थे; अब भी समझ रहे हैं कि आपस में लड़कर वे भाजपा का ही फायदा कर रहे हैं परन्तु इस विशालकाय देश में बेशुमार राजनीतिक पार्टियां हैं जिनके अस्तित्व के अपने-अपने प्रयोजन हैं और जो विभिन्न राज्यों या समूहों की महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करते हैं। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही ऐसा दल है जिसकी राष्ट्रीय पहचान और देशव्यापी उपस्थिति है। इनके लिये अलग चुनाव लड़ना खुद की मौजूदगी का एहसास दिलाने के लिये अनिवार्य सा होता है।

इसके बावजूद विपक्ष एक होने का जो नाम नहीं ले रहा था उसके पीछे अनेक कारण थे। पहला था स्थानीय पहचान खोने का डर और दूसरे, किसी अन्य दल का नेतृत्व स्वीकारने में रज़ामंद न होना। पिछले करीब डेढ़ वर्षों से कांग्रेस के नेतृत्व में बना इंडिया गठबन्धन कतिपय सफलताओं और कुछ नाकामियों के साथ फिर ऐसी जगह पर खड़ा है जहां कांग्रेस को इस बात की नाप-तौल करने कि क्या उसे आवश्यकता है कि वह गठबन्धन का नेतृत्व करता रहे, उसके साथ रहे अथवा अकेले चुनावों में उतरे? उसके सहयोगी गठबन्धन जिस हिसाब से उसे अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचा रहे हैं उसके चलते कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि तारिक अनवर जैसे वरिष्ठ नेता सवाल करें कि कांग्रेस को सोचना होगा कि वह अकेले चले या गठबन्धन में बनी रहे।

इंडिया के गठन को देखें तो वह कांग्रेस की ही देन है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दो कार्यकालों के दौरान यह किसी ने नहीं सोचा था कि इस प्रकार का कोई गठबन्धन मोदी-भाजपा के खिलाफ़ खड़ा हो सकता है। 7 सितम्बर, 2023 को जब धुर दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के कन्याकुमारी से निकल कर 30 जनवरी, 2024 को कश्मीर की राजधानी श्रीनगर तक ('भारत जोड़ो यात्रा') राहुल गांधी ने पैदल मार्च किया था, तभी से इसकी अवधारणा ने जन्म लिया था। राहुल की दूसरी यात्रा 14 जनवरी, 2024 से मणिपुर से निकली तथा मुम्बई में 18 मार्च को मुम्बई में समाप्त हुई थी। इस हाईब्रीड यात्रा को 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' कहा गया। इसके समापन पर मुम्बई में जब वृहद आम सभा हुई थी तो बीसियों गैर भाजपायी दल उसमें शामिल हुए थे और एक तरह से मुकम्मल गठबन्धन बन गया था।

'इंडिया' के नाम से बना यह प्रतिपक्षी गठजोड़ भारत की विविधता को तो दर्शाता ही है, वह प्रतिरोध के देशव्यापी विस्तार का भी प्रतिबिम्ब था। पहली बार लगा कि भाजपा को टक्कर दी जा सकती है। बिहार के मुख्यमंत्री व नीतीश कुमार जनता दल प्रमुख नीतीश कुमार व राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी जैसे लोगों ने गठबन्धन को महत्वपूर्ण मौकों पर धोखा दे दिया, पिर भी कई दलों ने गठबन्धन का मजबूती से साथ दिया। मामूली मतभेदों के बाद भी वे संग-संग चले। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (राष्ट्रीय जनता दल), तमिलनाडु के सीएम (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) एमके स्टालिन, झारखंड मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (झारखंड मुक्ति मोर्चा), महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व शिवसेना (यूबीटी गुट) उद्धव ठाकरे व नेशनल कांग्रेस पार्टी के एक धड़े के चीफ़ शरद पवार, जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला (नेशनल कांफ्रेंस) जैसे भी शामिल हैं जो उतार-चढ़ावों में भी गठबन्धन का हिस्सा बने हुए हैं। जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती (पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) हैं तो इंडिया में लेकिन स्थानीय राजनीति के चलते नेशनल कांफ्रेंस से अलग चुनाव लड़ती हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम व तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बैनर्जी तथा अरविंद केजरीवाल (आम आदमी पार्टी- दिल्ली व पंजाब) गठबन्धन के साथ तो हैं पर अपने-अपने राज्यों में स्वतंत्र रूप से लड़ते हैं।

तालमेल का अलग-अलग पैटर्न ही इसकी कमजोरी है। इसके चलते उसके उन उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता जो इसके गठन के दर्मियान सोचे गये थे। ऐसे में जब कटिहार के सांसद तारिक अनवर उपरोक्त सवाल करते हैं तो सम्भवत: निराशा के चलते उन्होंने यह मुद्दा उठाया होगा कि आधे-अधूरे गठबन्धन से बेहतर है कि अकेले लड़ा जाये। अनवर के सवाल पर गम्भीरता से सोचे जाने की ज़रूरत है क्योंकि यह प्रश्न और भी कांग्रेसियों के मन में हो सकता है। गठबन्धन एवं चुनावों के दौरान सहयोगी दलों के प्रत्याशियों के साथ होने वाला घालमेल सभी को दुविधा में डालता है। अकेले लड़ने में कम से कम वह असमंजस की स्थिति तो नहीं ही रहेगी। हालांकि कांग्रेस को देश का नक्शा सामने रखकर सीटवार इस बात का आकलन करना चाहिये कि अकेले लड़ने की बजाये मिलकर लड़ने पर उसका कितना लाभ या नुकसान हो रहा है। यदि कुछ ही सीटों की कीमत पर कांग्रेस गठबन्धन धर्म निभाने के फेर में अपना ज्यादा नुकसान कर रही है तो उसे पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।

सवाल हो सकता है कि यदि परिस्थितियां गठबन्धन की मांग करती हैं तो उसका नेतृत्व करने वाले दल का अकेले लड़ने हेतु बाहर हो जाना कितना समयानुकूल व वाजिब होगा। हालांकि विपक्षी एकजुटता तो हर स्थिति व काल में वांछनीय और स्वागत योग्य ही रहेगी लेकिन क्या ज़रूरी है कि बिगड़ैल सहयोगियों को हैंडल करने में कांग्रेस अपना वक्त व ऊर्जा जाया करे? ममता बैनर्जी 'अवर फेवरेट राहुल जी' कहते-कहते पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ती हैं, तो वहीं महबूबा मुफ्ती को तीन सीटों पर सिमट पर मंजूर है लेकिन मिलकर लड़ना गवारा नहीं। दिल्ली में तीन बार सरकार बनाने वाले अरविंद केजरीवाल अपने प्रमुख सिपहसालारों के साथ अपमानजनक पराजय झेल सकते हैं व फिर से जेल जाने का खतरा मोल ले सकते हैं, परन्तु जब देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची बनाकर सचित्र पोस्टर दिल्ली के चौक-चौराहों पर टांगने की बारी आती है तो वे राहुल को तीसरा सबसे अधिक भ्रष्टाचारी निरुपित करने में देर नहीं लगाते। ऐसे में कांग्रेस को ऐसे गठबन्धन और उसके सहयोगियों को लम्बे समय तक ढोना अनावश्यक प्रतीत होना स्वाभाविक है।

उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली हारने के बाद जो तंज किया कि 'अकेले लड़ो और हारते रहो', वस्तुत: एक गम्भीर टिप्पणी है। अब राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल भी कहते हैं कि कांग्रेस व गठबन्धन को अभी से तय करना होगा कि 2029 का चुनाव कैसे लड़ना है। एकजुटता के पक्षधर जानते हैं कि मौजूदा हालात में एकता होनी चाहिये, पर वह दिखनी भी तो चाहिये; और उसके नतीजे भी मिलने चाहिये। दिल्ली का चुनाव कांग्रेस मिलकर लड़ना चाहती थी पर आप ने उसका दोस्ती का हाथ झटक दिया जो उसे तो भारी पड़ा ही, गठबन्धन में बड़ी दरार छोड़ गया। हालांकि राहुल व कांग्रेसाध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे एकता को बनाये रखने की इसलिये कोशिश करेंगे क्योंकि वे इस लड़ाई में सीधे उतरे हुए हैं। वे भाजपा की शक्ति को जानते हैं। कांग्रेस के बहुत से नेता खुद को भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सीधी लड़ाई से बचाकर चलते हैं।

उनके सामने खुद का कैरियर है या वे अपने किसी की सेटिंग की फिराक में रहते हैं अथवा केन्द्रीय जांच एजेंसियों से बचाये रखना चाहते हैं। अकेले लड़ना निश्चित ही दुरूह है पर अब वक्त आ गया है कि पार्टी इसका हन अध्ययन करे कि अकेले लड़ने में उसका हासिल क्या होगा और अभी वह क्या गंवा रही है। लम्बी लड़ाई व बड़ा जोखिम उसके खाते में होगा पर कांग्रेस सक्षम है।

(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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