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न्याय देकर छीनने की नाइंसाफी

'विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होने के समान है', काफी प्रचलित मुहावरा है

न्याय देकर छीनने की नाइंसाफी
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'विलंबित न्याय, न्याय से वंचित होने के समान है', काफी प्रचलित मुहावरा है। मगर न्याय देकर छीनने को क्या कहा जाए, इसके लिए भी कोई जुमला गढ़ने की जरूरत है। जिस तरह उन्नाव बलात्कार मामले के दोषी कुलदीप सिंह सेंगर को मिली उम्रकैद की सजा निलंबित की गई है और ऊपर से जमानत भी दे दी गई है, उसके बाद ऐसा ही लग रहा है कि न्याय के नाम पर क्या पीड़िता के साथ छलावा हुआ है। जैसे सीताजी की अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी उनका परित्याग श्री राम ने किया था, जिसके बाद आखिरकार उन्हें धरती की शरण में ही जाना पड़ा, उसी तरह उन्नाव बलात्कार कांड की पीड़िता को नाइंसाफी से गुजरना पड़ रहा है। कायदे से तो जिस महिला पर उत्पीड़न हुआ है, उसकी न कोई परीक्षा लेनी चाहिए, न उसे किसी शर्मिंदगी का एहसास कराया जाना चाहिए। लेकिन समाज ऐसा ही है, जो बलात्कार पीड़िता को लगातार ये याद दिलाता है कि उसकी इज्जत अब छीन ली गई है, वह समाज में सिर उठाकर जीने लायक नहीं है। जबकि सिर झुकाकर सजा भोगने का काम अपराधी का होता है। दुख की बात ये है कि इस बार अपराधी न्यायालय के आदेश से सलाखों के बाहर आया है। हालांकि सबने देखा है कि उसे सलाखों के पीछे डालने में कितना वक्त और कितनी ताकत लगी।

उप्र के उन्नाव जिले में 11 से 20 जून 2017 के बीच एक नाबालिक लड़की को अगवा कर बलात्कार के गंभीर आरोप विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर लगे थे। लेकिन सेंगर को गिरफ्तार करने में साल भर का वक्त लग गया। क्योंकि स्थानीय पुलिस सेंगर और उसके साथियों को बचाने में लगी थी। इस बीच पीड़िता के पिता पर सेंगर के लोगों की शिकायत पर आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया, जिसमें हिरासत में ही उनकी मौत हुई। उत्पीड़ना का ये सिलसिला यहीं नहीं थमा, फरवरी 2018 में सेंगर को गिरफ्तार तो किया गया, लेकिन 2019 में पीड़िता अपने रिश्तेदारों और वकील के साथ जिस कार में जा रही थी, उसे एक बिना नंबर प्लेट की ट्रक ने ठोकर मारी, जिसमें पीड़िता की दो महिला रिश्तेदारों की मौत हो गई, जो इस केस में अहम गवाह भी थीं। इसमें पीड़िता की जान बच गई। 28 जुलाई 2019 की इस सड़क दुर्घटना के बाद 29 जुलाई 2019 को सेंगर और नौ अन्य के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई। फिर 30 जुलाई को पीड़िता का भारत के मुख्य न्यायाधीश को लिखा पत्र सार्वजनिक हुआ। 31 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने पत्र का स्वत: संज्ञान लिया। 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने मामले से जुड़े पांच केस दिल्ली स्थानांतरित करने का आदेश दिया। 20 दिसंबर 2019 को ट्रायल कोर्ट ने सेंगर को आजीवन कारावास और 25 लाख रुपये जुर्माने की सज़ा सुनाई गई। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि सीबीआई पीड़िता और उसके परिवार के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त क़दम उठाए। इसमें ज़रूरत पड़ने पर सुरक्षित आवास और पहचान बदलने की व्यवस्था भी शामिल हो।

लेकिन छह साल पहले जिसे पीड़िता के लिए न्याय समझा जा रहा था, उसे पलटते हुए अब दिल्ली हाई कोर्ट की एक बेंच ने मंगलवार 23 दिसंबर को सेंगर की सज़ा निलंबित कर दी है। जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन की बेंच ने पूर्व विधायक को 15 लाख रुपये के निजी मुचलके और समान राशि के तीन ज़मानतदार पेश करने का निर्देश दिया। जमानत की कुछ शर्तें भी हैं, जैसे सेंगर को दिल्ली में ही रहना होगा, हर सोमवार पुलिस के सामने रिपोर्ट करना होगा और पीड़िता जहां भी हो, उसके पांच किलोमीटर के दायरे में फटकना नहीं होगा। अदालत ने कहा, किसी भी शर्त के उल्लंघन की स्थिति में ज़मानत (सज़ा निलंबन) रद्द कर दी जाएगी।

अब ये पता नहीं कि सेंगर को पीड़िता से दूर रखने के लिए पांच किमी की माप जोख हर बार कैसे की जाएगी। अदालत को इस पहलू पर भी विचार करना चाहिए था कि सेंगर जैसे लोग अपने राजनैतिक रसूख का इस्तेमाल कर जब पुलिस-प्रशासन को अपने इशारों पर नचा सकते हैं तो खुद न सही किसी और के जरिए पीड़िता के पास तक पहुंचने या उसे डराने-धमकाने से कैसे रोका जा जाएगा। यह महज संयोग नहीं थे कि पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत हुई और बाद में उसकी गाड़ी को भी ट्रक से कुचलने की कोशिश हुई। यह रसूखदार व्यक्ति को बचाने की खतरनाक साजिश लगती है। लेकिन कुलदीप सेंगर को जमानत देकर, उसकी उम्रकैद निलंबित कर पीड़िता के लिए खतरे बढ़ा दिए गए हैं।

गौरतलब है कि सेंगर की सज़ा निलंबित होने के कुछ ही घंटों बाद पीड़िता, उनकी मां और महिला अधिकार एक्टिविस्ट योगिता भयाना ने मंगलवार को इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन पुलिस ने यहां भी उन्हीं को प्रताड़ित किया और जबरन धरने से उठा दिया।

पीड़िता ने आरोप लगाया कि 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को देखते हुए सेंगर को ज़मानत दी गई है। ताकि उनकी पत्नी चुनाव लड़ सकें। उन्होंने सवाल उठाया कि, 'अगर ऐसे आरोपों वाला व्यक्ति बाहर रहेगा तो उनकी सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी।' पीड़िता ने यह कहते हुए ज़मानत रद्द करने की मांग भी की कि सेंगर की रिहाई के बाद वह 'डरी हुई हैं।' उन्होंने न्यायपालिका में भरोसा जताते हुए कहा कि वे इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का रुख़ भी करेंगी।

अब देखना होगा कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में किस तरह टिकता है और यहां से न्याय की उम्मीद जागती है या फिर एक लौ बुझती है।


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