छत्तीसगढ़ में उतेरा खेती की पहल
परंपरागत खेती में अच्छी बात यह है कि इसमें लागत कम है या नहीं के बराबर होती है। देसी बीजों के संरक्षण पर इसमें जोर दिया जाता है

- बाबा मायाराम
परंपरागत खेती में अच्छी बात यह है कि इसमें लागत कम है या नहीं के बराबर होती है। देसी बीजों के संरक्षण पर इसमें जोर दिया जाता है। किसानों के पास धान व अन्य फसलों के देसी बीज उपलब्ध होते थे। अब इसमें कमी आई है, इसलिए संस्था ने इसके लिए बीज बैंक भी बनाया है, जिसके तहत किसानों को देसी बीज दिए जाते हैं और फसलों की तकनीक का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिससे नई तकनीकें भी शामिल हैं।
छत्तीसगढ़ में पारंपरिक खेती काफी समृद्ध रही है। यहां खेती में काफी विविधता है। यह इलाका, न केवल धान की खेती के लिए जाना जाता है,बल्कि विविध तरह की खेती की भी इसकी पहचान रही है। आज इस कॉलम में इसी पर चर्चा करना चाहूंगा, जिससे खेती के साथ पशुपालन, खान-पान की संस्कृति को समझा जा सके।
छत्तीसगढ़ में परंपरागत रूप से उतेरा खेती होती है। उतेरा खेती में एक फसल कटने से पहले दूसरी फसल को बोया जाता है। यानी दूसरी फसलों की बुआई पहली फसल कटने के पहले ही कर दी जाती है।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। यहां की प्रमुख फसल धान है। धान की फसल जब खड़ी रहती है, जब उसमें फूल आने लगते हैं, फसलों में करीब आधे प्रतिशत फूल आ जाते हैं, तब उसमें दूसरी फसलें बोई जाती हैं। यह समय अक्टूबर आखिर में या नवंबर के पहले हफ्ते का होता है।
यानी बारिश की नमी में धान की फसल के बीच तिवड़ा ( खेसरी दाल),बटरी, अलसी, उड़द, सरसों व चना के बीज छिड़क दिए जाते हैं। इसमें सावधानी रखनी होती है कि खेत का पानी सूख जाए तभी बीजों का छिड़काव किया जाता है। इन फसलों को अलग-अलग नमी के हिसाब से छिड़कते हैं, या बोते हैं, एक साथ नहीं। यह किसानों का इसका पारंपरिक ज्ञान है। इसके बाद फसलें धीरे- धीरे उग जाती हैं।
धान कटाई बहुत ही सावधानी से की जाती है, जिससे दूसरी फसलों को नुकसान न पहुंचे। खेत में धान के डंठलों के बीच से तिवड़ा उग जाता है, जिसके पौधे को ठंडलों से मदद भी मिलती है।
मार्च के आसपास यह फसलें तैयार हो जाती हैं और फिर काट ली जाती हैं। यानी बारिश की नमी में ही दूसरी फसलें भी पक जाती हैं। यह छत्तीसगढ़ के किसानों का परंपरागत तरीका है।
इसी प्रकार, यहां किसान खेतों की मेड़ों पर भी अरहर, तिली, गजा मूंग, अमाड़ी , भिंडी, बरबटी, झुरगा ( बरबटी की तरह), चुटचुटिया( ग्वारफली) आदि लगाते हैं। यानी खेत में धान, उतेरा में तिवड़ा, अलसी, बटरी, सरसों, उड़द, चना आदि लगाते हैं और मेड़ पर भी अरहर, तिली, हरी सब्जियां लगाते हैं।
एक खेत में धान यानी चावल, दलहन व तिलहन सब कुछ हो जाता है। छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति, तीज-त्यौहार व खेती से जुड़े हैं। यहां का प्रमुख भोजन चावल है, यानी भात और दाल। सब कुछ किसान खेतों में उगा लेते हैं। अतिरिक्त फसलें होने से आर्थिक लाभ भी होता है। भोजन में भी पोषण मिलता है। यह मिश्रित फसलों का परंपरागत तरीका है।
पशुपालन भी इससे जुड़ा है। धान का पैरा ( ठंडल) मवेशियों को चराने के काम आता है। बैल खेतों में जुताई करते थे। यह सब एक दूसरे से जुड़ा है। फसलों की कटाई हाथ से हंसिए से की जाती है। ठंडल बहुत छोटे होते हैं और उन्हें जलाने की जरूरत नहीं पड़ती।
इससे मिट्टी की सेहत भी अच्छी होती है। इसके फसलों के ठंडल भूमि में सड़कर जैव खाद बनाते हैं, मिट्टी को उर्वर बनाते हैं। इसके साथ, फल्ली वाली फसलों की पत्तियां मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक हैं। किसानों का जाना-माना तरीका रहा है। मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए मिश्रित खेती की पद्धतियां मददगार हैं। इस तरह की खेती देश के कई इलाकों में प्रचलित रही है।
उतेरा की फसलों का भूसा भी काफी पौष्टिक होता है,जिसे पशु बहुत पसंद करते हैं। यहां की संस्कृति में पशुपालन का काफी महत्व था। हालांकि इसमें ट्रेक्टर की खेती से कमी दिखाई देती है। लेकिन बिलासपुर जिले में जन स्वास्थ्य सहयोग ने कुछ गांवों में खेती में सामूहिक फैंसिंग की पहल की है, जिससे आवारा पशुओं व जंगली जानवरों से फसलों को नुकसान न पहुंचे।
बिलासपुर जिले के कोटा विकासखंड के करका, मानपुर और छपरवा गांव में सामूहिक तारबंदी का काम हुआ है, जिससे किसानों को रखवाली नहीं करनी पड़ती। इसके लिए सबसे पहले गांव में सामूहिक एकता बनाई गई। गांव में घर-घर से चंदा इकट्ठा किया गया। कुछ मदद सरकार से ली गई। श्रमदान किया गया। तब जाकर सामूहिक फैंसिंग का काम पूरा हुआ।
सामूहिक फैंसिंग की जरूरत इसलिए भी पड़ी, अगर हर किसान अपने खेत की बागुड़ करेगा तो बहुत खर्च आएगा, फिर इससे किसानों के खेतों में आवाजाही में भी बाधा आएगी। यह व्यावहारिक हल भी नहीं है। इसलिए संस्था ने गांव की जनभागीदारी से यह पहल की है, जिससे खेतों में फसल सुरक्षा भी हो सके और लोगों के खान-पान में पौष्टिकता व विविधता भी आ सके।
किसानों ने इस वजह से उतेरा की फसलें बोनी शुरू कर दी हैं। इससे भोजन में पौष्टिकता बढ़ेगी, हरी पत्तीदार सब्जियां ( तिवड़ा) मिलेगी, पशुओं को चारा मिलेगा। और मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ेगी।
इसके साथ, संस्था ने पौष्टिक अनाजों की खेती व देसी बीजों की खेती को भी बढ़ावा दिया है। संस्था के परिसर में मडिया, कांग, कोदो, कुटकी, सांवा जैसी फसलें उगाई जाती हैं, और किसानों को इन फसलों को बोने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
चूंकि संस्था स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती है। यहां के डॉक्टरों का मानना है कि बीमारी का इलाज करने के साथ उसकी रोकथाम भी जरूरी है। उसके लिए पौष्टिक भोजन भी जरूरी है। संस्था ने इसके लिए कृषि व पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया है, जिससे तहत पौष्टिक व देसी धान की खेती व पशुओं का इलाज किया जाता है। इसी के तहत यह अनूठी पहल की जा रही है।
परंपरागत खेती में अच्छी बात यह है कि इसमें लागत कम है या नहीं के बराबर होती है। देसी बीजों के संरक्षण पर इसमें जोर दिया जाता है। किसानों के पास धान व अन्य फसलों के देसी बीज उपलब्ध होते थे। अब इसमें कमी आई है, इसलिए संस्था ने इसके लिए बीज बैंक भी बनाया है, जिसके तहत किसानों को देसी बीज दिए जाते हैं और फसलों की तकनीक का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिससे नई तकनीकें भी शामिल हैं।
परंपरागत खेती में आत्मनिर्भरता होती है। किसानों का खुद का देसी बीज, गोबर खाद और मेहनत होती है और इसमें पीढ़ियों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग होता है। यह स्वावलंबी होती है। जबकि रासायनिक आधुनिक खेती में बीज, खाद और कीटनाशक सभी कुछ बाजार से खरीदा जाता है। इसमें किसान की लागत बढ़ती है, किसान परावलंबी होता है।
लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें कमी आई है। अब बैलों की जगह ट्रेक्टर से जुताई व फसलों की कटाई हारवेस्टर से होने लगी है। इसमें ठंडल बड़े होते हैं और इसे दूसरी फसल बोने के लिए किसान ठंडलों को जलाते हैं। इससे प्रदूषण होगा और गर्मी की धान की फसल बोने से भूजल में कमी आएगी।
कुल मिलाकर, उतेरा की फसल बहुत ही उपयोगी है। हालांकि यह पहल छोटी है, पर इससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। इससे किसानों को धान के साथ दलहन, तिलहन और अतिरिक्त उपज मिल जाती है। बारिश की नमी का उपयोग भी हो जाता है। दलहन व फली वाली फसलों से खेतों को नत्रजन भी मिलती है। भोजन के लिए चावल, दाल और सब्जियां मिल जाती हैं, जो छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति भी है। यह खेती मिट्टी पानी के संरक्षण वाली है, जैव-विविधता व पर्यावरण का संरक्षण भी इससे होता है।


