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नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति का खस्ताहाल

हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मोदीजी के नेतृत्व वाली भारत सरकार की विदेश नीति ने जो बदनामी अर्जित की है, उसे कम करके नहीं आंका जा सकता

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति का खस्ताहाल
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- प्रकाश कारत

हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मोदीजी के नेतृत्व वाली भारत सरकार की विदेश नीति ने जो बदनामी अर्जित की है, उसे कम करके नहीं आंका जा सकता। १३ जून को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्पेन द्वारा पेश किये गये एक प्रस्ताव को पारित किया, जिसमें गाजा में तत्काल और बिना शर्त युद्धविराम का आह्वान किया गया था। प्रस्ताव में इज़राइल पर 'नागरिकों को युद्ध के एक तरीके के रूप में भुखमरी' का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया था। १९३ सदस्य देशों में से १४९ ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, १२ ने विरोध किया जबकि १९ ने मतदान में भाग नहीं लिया। भारत ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान नहीं किया, बल्कि मतदान से दूर रहा।

यह सबसे शर्मनाक रुख था, क्योंकि गाजा पर इज़राइल द्वारा जारी नरसंहार युद्ध और २० लाख लोगों पर बड़े पैमाने पर भुखमरी के हथियार के रूप में इस्तेमाल की पृष्ठभूमि में युद्धविराम की तत्काल आवश्यकता स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। मतदान से परहेज़ करने के लिए भारत का तर्क कमज़ोर और कपटपूर्ण था- कि 'स्थायी शांति केवल सीधी बातचीत से ही स्थापित हो सकती है'। यह कपटपूर्ण इसलिए था क्योंकि इज़राइल ने ही पिछला युद्धविराम तोड़ा था और गाजा में सभी आपूर्ति पर पूर्ण नाकाबंदी लगा दी थी। मतदान से परहेज़ करना भारत के उस रुख के विपरीत था जो उसने छह महीने पहले, दिसंबर २०२४ में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में युद्धविराम का आह्वान करने वाले एक प्रस्ताव को पारित करते समय अपनाया था, जिसमें भारत ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था। भारत और तिमोर-लेस्ते केवल दो एशियाई देश थे जिन्होंने मतदान से परहेज़ किया। अन्य सभी एशियाई देशों ने, यहां तक कि जापान और दक्षिण कोरिया जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका के कट्टर सहयोगियों ने भी, प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया।

राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा नेतन्याहू की फ़िलिस्तीनियों के सफाये की योजना को पूर्ण समर्थन दिये जाने के बाद, मोदी सरकार ने स्पष्ट रूप से इज़राइल समर्थक रुख़ अपनाने का साहस दिखाया है। ट्रंप प्रशासन ने यह भी संकेत दिया है कि वह अब द्वि-राष्ट्र समाधान का समर्थन नहीं करता। हर कीमत पर ट्रंप के साथ खड़े होने के गुलामी भरे रवैये के कारण भारत ने फ़िलिस्तीनी मुद्दे के प्रति अपने सैद्धांतिक समर्थन को पूरी तरह त्याग दिया है और इज़राइली शासन की उपनिवेशवादी-नरसंहारकारी नीतियों का साथ दिया है।

यह बात एक बार फिर स्पष्ट हो गयी कि विदेश नीति अमेरिका-इज़राइल धुरी के हाथों में गिरवी रख दी गयी है, जब भारत ने १४ जून को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) द्वारा जारी उस बयान से खुद को अलग कर लिया, जिसमें ईरान पर इज़राइली सैन्य हमलों की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लघन बताया गया था। भारत सरकार ने तुरंत घोषणा की कि बयान जारी करते समय उससे सलाह नहीं ली गयी थी। यहां तक कि यह तथ्य कि ईरान एससीओ का एक सदस्य है और उस पर आक्रमण हुआ था, मोदी सरकार की अन्तरात्मा को परेशान नहीं कर रहा था। अपनी ओर से मोदी सरकार ने। ईरान, जो एक मित्र देश है और जिसके साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी है, के विरुद्ध इज़राइल के सैन्य आक्रमण की आलोचना या निंदा नहीं की। इस रुख की तुलना जापान की प्रतिक्रिया से की जा सकती है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका का एक घनिष्ठ सहयोगी और क्वाड का सदस्य है। जापानी सरकार ने ईरान पर इज़राइली हमले की कड़ी निंदा की और इसे अंतरराष्ट्रीय कानून और ईरान की संप्रभुता का घोर उल्लंघन बताया।

जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने २२ जून को सभी अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानदंडों का घोर उल्लंघन करते हुए ईरान के तीन परमाणु प्रतिष्ठानों पर बमबारी की, तो भारत चुप रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने ईरानी राष्ट्रपति को फ़ोन करके चिंता व्यक्त की और तनाव कम करने का आह्वान किया। यह आक्रमण के शिकार लोगों को सलाह थी कि वे अपनी रक्षा के लिए कोई कदम न उठायें।

रियो डीजेनेरियो में आयोजित ब्रिक्स नेताओं के शिखर सम्मेलन में, मोदी ने अपने भाषण में ईरान पर इज़राइली हमले और उसके परमाणु स्थलों पर अमेरिकी बमबारी की किसी भी आलोचना से परहेज किया। लेकिन शिखर सम्मेलन द्वारा जारी संयुक्त बयान में ईरान पर आक्रमण की कड़ी निंदा की गयी। ज़ाहिर है, ब्रिक्स के दस अन्य सदस्य देश इस मामले पर भारत के विचारों से सहमत नहीं हैं।

विदेश नीति में दक्षिणपंथी झुकाव राष्ट्रपति ट्रंप की कृपा पाने और उनकी बेतुकी मांगों को मनवाने की उत्सुकता से उपजा है। १ जुलाई को वाशिंगटन में हुई क्वाड विदेश मंत्रियों की बैठक में चीन को एक सुरक्षा ख़तरा और उसके बढ़ते आर्थिक प्रभाव का मुक़ाबला करने के रूप में और भी तीखे तरीकेे से रेखांकित किया गया। भारत यह सुनिश्चित करने पर तुला हुआ है कि ट्रंप इस साल के अंत में दिल्ली में होने वाले क्वाड नेताओं के शिखर सम्मेलन में शामिल हों।

भारत को व्यापार और शुल्क के मोर्चे पर भी ट्रंप की मांगों को मानना होगा। यहां भी, मोदी सरकार कोई ठोस रुख़ नहीं अपना पा रही है। सभी संकेत यही हैं कि भारत यह सुनिश्चित करने के लिए बड़ी रियायतें देने को तैयार था कि अंतरिम व्यापार समझौता ९ जुलाई की समय सीमा से पहले अंतिम रूप ले ले, जब ट्रंप द्वारा घोषित पारस्परिक शुल्कों में ९० दिनों का विराम समाप्त होने वाला है। हालांकि, अब तक हुई बातचीत किसी संतोषजनक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी है।

'ऑपरेशन सिंदूर' के बाद भारत की विदेश नीति की स्थिति खस्ताहाल है, यह बात साफ़ हो गयी है। ट्रंप भारत और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ने और भारत-पाकिस्तान संबंधों में अमेरिका को मध्यस्थ के रूप में पेश करने में कामयाब रहे हैं।

इस विफलता की जड़ में मोदी सरकार की संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ जूनियर साझेदारी करने की पुरज़ोर कोशिश है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अगली मुलाकात में एक नये दस वर्षीय रक्षा रूपरेखा समझौते पर हस्ताक्षर किये जायेंगे। फरवरी में मोदी की वाशिंगटन यात्रा के दौरान भारत ने बड़े पैमाने पर अमेरिकी सैन्य उपकरण खरीदने की प्रतिबद्धता जताई थी। अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्डलुटनिक ने जून में एक बार फिर भारत द्वारा रूस से हथियार खरीदने पर नाखुशी जताई, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि इन चिंताओं का समाधान कर दिया गया है और 'भारत संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य उपकरण खरीदने की दिशा में आगे बढ़ रहा है'।

यह सब भारत के महत्वपूर्ण हितों का परित्याग है, चाहे वह आर्थिक संप्रभुता से संबंधित हो, विदेश नीति से संबंधित हो, या रणनीतिक स्वायत्तता से।


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