भारत तो हमेशा से ही आशा का केन्द्र रहा है, मोदी जी!
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दूसरी बड़ी मिसाल है कि कैसे उसने दुनिया के अनेक देशों को औपनिवेशिक दासता की बेड़ियों को काटकर आत्म मुक्ति के लिये प्रेरित किया था

- डॉ. दीपक पाचपोर
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दूसरी बड़ी मिसाल है कि कैसे उसने दुनिया के अनेक देशों को औपनिवेशिक दासता की बेड़ियों को काटकर आत्म मुक्ति के लिये प्रेरित किया था। इस संघर्ष को जिसने राह दिखाई वह महात्मा गांधी थे जिन्होंने गरीब व कमजोर नागरिकों को अहिंसा व सत्य के अमोघ अस्त्र प्रदान किये।
वैसे तो किसी मिथक के बनने और उसके स्थापित होने में बरसों या सदियां लग जाती हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे गढ़ने और प्रतिस्थापित करने में क्षण भर भी नहीं लगाते और कमाल तो यह है कि वह मिनटों में स्थापित भी हो जाता है। उनके 11 वर्षों के कार्यकाल में अनेक और अविश्वसनीय किस्म की अवधारणाएं गढ़ने का उनका कारनामा देश देखता आ रहा है; और वे दुर्भाग्य से स्वीकार्य भी होती चली जा रही हैं। 'पिछले 70 वर्षों से देश में कुछ नहीं हुआ' से लेकर 'देश पर हमेशा से ही भ्रष्टाचारियों का शासन रहा है', 'विपक्ष हमेशा हिन्दू-मुसलमान करता रहा है' से लेकर 'नेहरू जी को कृषि की समझ नहीं थी' तक, 'भाजपा में कोई झूठ नहीं बोलता' से लेकर 'मेरे लिये पद का नहीं वरन सेवा का महत्व है' तक ऐसी अनेकानेक धारणाएं उन्होंने प्रवर्तित कीं तथा उन्हें जनता द्वारा मान्य कराया। अपने जुमलों की तरह मोदीजी द्वारा देशवासियों के जेहन में जिस तरह से परिकल्पनाएं प्रविष्ट की गयीं, उसे उनकी खासियत और सफलता दोनों ही कहा जा सकता है।
प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा कई शासकीय व अशासकीय कार्यक्रमों में भाषण किये जाते हैं अथवा पार्टी नेता के रूप में वे कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हैं या फिर निजी अथवा सार्वजनिक तौर पर जो कहते हैं, उन सभी में एक समानता ज़रूर होती है- वह है कोई ऐसा आख्यान गढ़ना जो अब तक न सुना गया हो या न कभी देखा गया हो। उनकी बातों को लोगों तक पहुंचाने व उसे मान्यता दिलाने की उनके पास एक सुव्यवस्थित प्रणाली है। इसलिये मोदी बेधड़क रोज-रोज नयी-नयी अवधारणाएं जनता के बीच स्थापित करते हैं। दूसरा तथ्य यह है कि उनकी ऑडियेंस उनके जुमलेनुमा कथनों पर भरोसा करने के लिये न सिर्फ तैयार बैठी होती है बल्कि उनका बेसब्री से इंतज़ार भी करती रहती है। इसलिये वह जल्दी से स्वीकार्यता प्राप्त कर लेती है। उनके कहे का खंडन नक्कारखाने में तूती सदृश्य साबित होता है। ऐसे भी लोग हैं जो जानते हैं कि मोदी जो कह रहे हैं वह यथार्थ से परे हैं लेकिन वे उन पर भरोसा करने तथा उन्हें आगे बढ़ाने के लिये विभिन्न कारणों से प्रतिबद्ध होते हैं। उनके उवाच अंतत: उनकी छवि निखारने का उपक्रम ही होते हैं। इसलिये उनकी भारतीय जनता पार्टी, उसके नेता, कार्यकर्ता, आईटी सेल, समर्थक, प्रशंसक... सारे एक स्वर में उनके उठाये विमर्श को आगे बढ़ाते हैं। मोदी व भाजपा की यही ताकत है।
नया शोशा जो उन्होंने छोड़ा है वह यह है कि 'इतिहास में यह पहला अवसर है जब दुनिया भारत को लेकर आशावादी हुई है।' मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में अपने भाषण में उन्होंने सोलर ऊर्जा, विदेशी निवेश, एयरोस्पेस कम्पनियों हेतु सप्लाई चेन आदि क्षेत्रों में भारत की उपलब्धियों का ज़िक्र तो किया ही, विश्व बैंक के हवाले से बताया कि देश अगले दो वर्षों तक दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना रहेगा। पीएम कह रहे हैं तो सही ही होगा, लेकिन इस बड़ी या सुपरसोनिक गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था का असर जनजीवन पर तो होता हुआ बिलकुल नहीं दिखाई दे रहा है और तीन चौथाई देश कोरोना के बाद से आज तक 5 किलो राशन की लाइन में लगा हुआ है। उस पर भी मोदी को वैसा ही गर्व है जैसा देश की बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने पर है; पर मूल सवाल यह है कि क्या भारत विश्व की आशा का केन्द्र पहली बार बना है; और क्या केवल ऐसा भौतिक विकास करने से कोई देश विश्व भर की आशा का केन्द्र बन सकता है जो कि अपरिभाषित और संदेह के घेरे में है? फिर, क्या वाकई पहली बार भारत की ओर दुनिया आशा भरी निगाहों से देख रही है? मोदी ने यह अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने के लिये बयान दिया होगा क्योंकि उनके कथन का अनभिव्यक्त हिस्सा यही है कि ऐसा उनके कारण हो रहा है यानी भारत को इस स्थिति में लाने वाले वे ही हैं।
दरअसल यह बात वही कह सकता है जिसके पास सिवा आत्ममुग्धता व अहंकार के कुछ नहीं है। साथ ही यह भी साफ है कि यह विचार तभी आयेगा जब उसने भारत को ठीक से न जाना हो। बेशक मोदी इसका श्रेय लेते रहें कि उन्हीं के कारण दुनिया भारत की ओर देखने लगी है, पर वास्तविकता यह है कि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। बल्कि कई-कई बार भारत ने लोगों का ध्यान अपनी ओर उम्मीदगी के साथ खींचा है। वह हमेशा से ही वैश्विक आशा का केन्द्र रहा है। वह भी कोई दो-चार साल, कुछ दशक नहीं वरन सदियों पहले से। ढाई हजार साल पहले का काल याद करें जब केवल भारत नहीं, दुनिया ही हिंसा और गैर बराबरी से परिपूर्ण थी। भगवान महावीर ने अहिंसा तथा बुद्ध ने सम्यक ज्ञान के उपदेश दिये और निराशा व भेदभाव के अंधकार में डूबी दुनिया को राह दिखाई थी। बुद्ध का जलाया दीपक तो पूरे एशिया को आलोकित कर रहा है। आज भी अनेक देशों का वह पथ प्रदर्शक है। भारत तब भी यदि आशा का केन्द्र न होता तो तकरीबन 2000 साल पूर्व भारत के मलाबार तट पर यहूदी न आते, न ही पारसी 1200 वर्ष पहले अपना मूल स्थान फारस (वर्तमान ईरान) छोड़कर गुजरात के संजान तट पर शरण लेते; और न ही द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी अत्याचारों से बचकर आये लगभग एक हजार पोलैंडवासी 1942 में जामनगर में आश्रय पाते। हिमाचल प्रदेश के मलाणा गांव में भारत से असफल लौटते सिकंदर (326 ईसा पूर्व) के ग्रीक सैनिकों के तथा गुजरात के जम्बूर में 200 साल पहले बस गये अफ्रीकी कबीले सिद्धि मूल के मजदूरों के वंशज आज भी नहीं बसे हुए होते, गर भारत आशा का केन्द्र न होता। चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद धर्मगुरु दलाई लामा को 1959 में विश्व के आशा के इसी केन्द्र भारत ने शरण दी थी और इसी कारण से बांग्लादेश की निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना यहां हैं।
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दूसरी बड़ी मिसाल है कि कैसे उसने दुनिया के अनेक देशों को औपनिवेशिक दासता की बेड़ियों को काटकर आत्म मुक्ति के लिये प्रेरित किया था। इस संघर्ष को जिसने राह दिखाई वह महात्मा गांधी थे जिन्होंने गरीब व कमजोर नागरिकों को अहिंसा व सत्य के अमोघ अस्त्र प्रदान किये। आजादी मिली तो बीआर अंबेडकर के संविधान ने देश में सदियों से भेदभाव भरी एक निष्ठुर सामाजिक व्यवस्था के कारण गुलामगिरी कर रहे करोड़ों शोषितों व वंचितों को मुक्त कर उन्हें नागरिक अधिकारों से लैस किया। यही संविधान अपने पन्नों में समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और बन्धुत्व के अध्यायों को समेटकर भारत को वैश्विक आशा का एक अक्षुण्ण-अक्षय केन्द्र बनाता है।
यदि देश कभी आशा का केन्द्र था ही नहीं, तो प्रकारान्तर से मोदीजी यह भी कह रहे हैं कि भारत की सभ्यता व संस्कृति में उनके आने से पहले ऐसा कुछ भी नहीं था जिसकी पुनर्प्राप्ति का संघर्ष भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है और जिस उद्देश्य को लेकर सौ वर्ष पहले उसकी स्थापना हुई थी। यानी भारत का जो कुछ भी अर्जन है वह इन्हीं पिछले एक दशक का है? तो पता चले कि आखिर किस भारत की स्थापना हेतु संघ कथित रूप से लड़ रहा है?
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


