Top
Begin typing your search above and press return to search.

डॉक्टरों की बढ़ती आत्महत्याएं: चिकित्सकों को चिकित्सा की जरूरत

सरकार, मेडिकल संस्थानों, 'इंडियन मेडिकल एसोसिएशन' और समाज को मिलकर ऐसे उपाय करने होंगे

डॉक्टरों की बढ़ती आत्महत्याएं: चिकित्सकों को चिकित्सा की जरूरत
X

- अमरपाल सिंह वर्मा

सरकार, मेडिकल संस्थानों, 'इंडियन मेडिकल एसोसिएशन' और समाज को मिलकर ऐसे उपाय करने होंगे, जिससे डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों के लिए काम और जीवन के बीच संतुलन कायम करना आसान हो। यह भी आवश्यक है कि समाज की ओर से डॉक्टरों पर अनावश्यक अपेक्षाओं का बोझ न डाला जाए। डॉक्टर भी इंसान हैं, उनकी भावनाओं और सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।

लोगों की सेवा एवं उनका इलाज करने के लिए जुटे रहने वाले डॉक्टर गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हाल ही में 'ब्रिटिश मेडिकल जर्नल' में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट चिंतित कर देने वाली है। इस रिपोर्ट में डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति पर गहरी चिंता जताई गई है। इसमें यह तथ्य सामने आया है कि मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों और डॉक्टरों में आत्महत्या का खतरा आम लोगों की तुलना में कहीं अधिक है।

महिला डॉक्टरों पर इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है। तनाव की वजह से आत्महत्या का सबसे अधिक खतरा महिला डॉक्टरों को है। इस शोध के अनुसार महिला डॉक्टरों में आत्महत्या का खतरा आम लोगों की तुलना में 24 प्रतिशत अधिक है। भारत में किए गए अध्ययनों से भी यह स्पष्ट हुआ है कि 40 प्रतिशत महिला डॉक्टर अत्यधिक तनाव में काम करती हैं। इस तनाव का सीधा संबंध मेंटल डिस्ऑर्डर और आत्महत्या के विचारों से है।

'इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री' में प्रकाशित एक शोध से भारत के डॉक्टरों के लिहाज से भी चिंताजनक तस्वीर उभरती है। इस जर्नल के आंकड़ों के अनुसार, पिछले एक दशक में भारत में 358 डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या की है, जिनमें से 70 प्रतिशत की उम्र मात्र 30 से 40 वर्ष के बीच थी। यह आंकड़ा केवल एक नंबर नहीं है, बल्कि यह समाज के लिए एक गंभीर चेतावनी है। जब देश के युवा और प्रतिभाशाली डॉक्टर तनाव और मानसिक दबाव के कारण अपनी जान लेने पर मजबूर हो रहे हैं तो यकीनन यह हमारे हेल्थ केयर सिस्टम और समाज के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है।

भारत के अध्ययनों से पता चलता है कि 40 प्रतिशत महिला डॉक्टरों को अत्यधिक तनाव की हालातों में काम करना पड़ रहा है। बढ़ता मानसिक असंतुलन और आत्महत्या के विचार इसके कारण हैं। डॉक्टर एमबीबीएस के बाद विशेषज्ञ बनने के लिए पीजी की तैयारी में जुट जाते हैं। एक तरफ काम का दबाव होता है, दूसरी ओर पढ़ाई की चिंता सताती है। इससे उपजे तनाव में संतुलन रखना बहुत कठिन होता है। शायद इसी का परिणाम है कि पिछले पांच सालों में 1270 मेडिकल छात्रों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इनमें 153 एमबीबीएस तथा 1117 पीजी में एडमिशन लेने वाले छात्र थे, जो एमबीबीएस के बाद विशेषज्ञ डॉक्टर बनने की चाह लिए हुए थे।

हमारे देश में आत्महत्या करने वाली महिला डॉक्टरों में सर्वाधिक 22.4 प्रतिशत 'एनेस्थीसिया विभाग' (निश्चेतना) की एवं 16 प्रतिशत 'स्त्री एवं प्रसूति रोग विभाग' की थीं। इन विभागों के डॉक्टरों के पास ही सर्वाधिक 'हाई-रिस्क' वाले मरीज आते हैं, इसलिए उन पर काम का दबाव एवं तनाव ज्यादा होता है।

डॉक्टरों की भारी कमी वाले हमारे देश में बन रहे ये हालात बहुत बुरे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी की वजह से लोगों को इलाज के लिए बड़े शहरों की ओर भागना पड़ रहा है। केंद्र सरकार का दावा है कि देश में डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' (डब्ल्यूएचओ) की ओर से निर्धारित मानदंडों से बेहतर है, मगर स्वास्थ्य मंत्रालय के पिछले साल के आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण भारत में 'सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों' (सीएचसी) में विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है। मंत्रालय द्वारा जारी भारत की 'स्वास्थ्य गतिशीलता (बुनियादी ढांचा और मानव संसाधन) 2022-23 रिपोर्ट' के निष्कर्षों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 'सीएचसी' में जरूरी 21 हजार 964 सर्जन, प्रसूति/स्त्री रोग विशेषज्ञ, फिजिशियन और बाल रोग विशेषज्ञों के मुकाबले भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 17 हजार 551 विशेषज्ञों की कमी है।

सीनियर डॉक्टरों की मानें तो मेडिकल छात्रों और डॉक्टरों पर अत्यधिक दबाव उनके लंबे और कठोर प्रशिक्षण, भारी कार्यभार, सामाजिक अपेक्षाओं और मानसिक स्वास्थ्य सहायता की कमी से उत्पन्न होता है। महिला डॉक्टरों को अपनी प्रोफेशनल लाइफ के साथ-साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी संतुलन बनाना पड़ता है, जिससे उनकी स्थिति और जटिल हो जाती है। अस्पतालों में तोड़फोड़, डॉक्टरों से मारपीट और अभद्र व्यवहार जैसी घटनाएं भी इस स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं।

वर्ष 2022 में राजस्थान के लालसोट में इलाज के दौरान एक प्रसूता की मौत होने पर धरने-प्रदर्शन और पुलिस द्वारा अपने खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से परेशान होकर सुसाइड कर लेने वाली युवा चिकित्सक डॉ. अर्चना शर्मा की मौत आज भी झकझोरती है। डॉ. अर्चना ने सुसाइड नोट में लिखा था कि ''मैंने कोई गलती नहीं की है, किसी को नहीं मारा। प्रसवोत्तर रक्तस्राव (पीपीएच) एक कॉम्प्लिकेशन है, इसके लिए डॉक्टरों को प्रताड़ित करना बंद करो।'' हाल में भरतपुर के रेडियोलॉजिस्ट डॉ. राजकुमार चौधरी ने आगरा में जाकर सुसाइड कर ली है। पूरे देश में इस तरह के मामले आते रहते हैं।

यह समस्या बहुत बड़ी है जिसका त्वरित समाधान होना चाहिए, लेकिन यह तभी हो सकता है, जब समस्या की जड़ों तक पहुंचकर असलियत की थाह ली जाए। यह जरूरी है कि महिला डॉक्टरों के दृष्टिगत 'हेल्थ केयर सिस्टम' में लिंग संवेदनशील रणनीतियां प्रभावी ढंग से लागू की जाएं। कामकाजी माहौल को महिला डॉक्टरों के लिए अधिक अनुकूल बनाना होगा। इसके साथ ही, डॉक्टरों और छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।

सरकार, मेडिकल संस्थानों, 'इंडियन मेडिकल एसोसिएशन' और समाज को मिलकर ऐसे उपाय करने होंगे, जिससे डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों के लिए काम और जीवन के बीच संतुलन कायम करना आसान हो। यह भी आवश्यक है कि समाज की ओर से डॉक्टरों पर अनावश्यक अपेक्षाओं का बोझ न डाला जाए। डॉक्टर भी इंसान हैं, उनकी भावनाओं और सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। जिस प्रकार डॉक्टर समाज के लिए जुटे रहते हैं, उसी प्रकार समाज के प्रत्येक वर्ग को भी डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य एवं सुकून को बनाए रखने के लिए योगदान देना चाहिए।
(स्वतंत्र लेखक हैं। )


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it