सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद
भारत में मुख्यधारा का मीडिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सलाह मानते हुए अब सकारात्मक रवैया अपनाने लगा है

भारत में मुख्यधारा का मीडिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सलाह मानते हुए अब सकारात्मक रवैया अपनाने लगा है, खासकर तब, जबकि इसमें किसी भी तरह भाजपा का हित जुड़ा हो। प्रधानमंत्री बनने से पहले दिल्ली में कॉलेज छात्रों को दिए एक भाषण में अपनी सकारात्मक सोच का उदाहरण देते हुए श्री मोदी ने कहा था कि वे गिलास आधा खाली है या आधा भरा है, इस सवाल पर कहते हैं कि गिलास पूरा भरा है, जो खाली दिख रहा है, वहां हवा भरी है। तो बस तब से देश में ऐसे ही हवा-हवाई माहौल चल रहा है। कुछ रहे न रहे, बस सब चंगा सी की उम्मीद पर देश को चलाया जा रहा है।
मीडिया भी तथ्यों को न देखकर हवा-हवाई बातों को बढ़ा रहा है। जैसे गुरुवार को मीडिया ने इस बात को जोर-शोर से चलाया कि चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली है। चुनाव आयोग की बिहार में मतदाता सूची गहन पुनरीक्षण की कवायद पर शीर्ष अदालत ने कोई रोक नहीं लगाई है। लेकिन ये हवा से आधे भरे गिलास का उदाहरण है। असल बात ये है कि शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग से साफ तौर पर कहा है कि वह जिन 11 दस्तावेज की मांग मतदाताओं से कर रहा है, उसमें आधार कार्ड को भी शामिल किया जाए। अदालत ने चुनाव आयोग से यह भी कहा है कि आप नागरिकता के मुद्दे पर क्यों जा रहे हैं, यह गृहमंत्रालय का विषय है। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों और तर्कों के आधार पर ही सुनवाई होने दी और उसकी अहम टिप्पणियां भी इन्हीं के आधार पर थीं। सुप्रीम कोर्ट न पूरी तरह चुनाव आयोग के पक्ष में दिखा, न उसने याचिकाकर्ताओं की तरफ कोई पक्षपात दिखाया, बल्कि उसकी तटस्थता साफ नजर आई, फिर भी मीडिया में चलाए जा रहे शीर्षक यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि बिहार में जिस मुद्दे को लेकर 9 जुलाई को विपक्ष ने इतना बड़ा हल्ला बोल किया, उस मुद्दे पर विपक्ष को अदालत में झटका मिला है। जबकि ऐसा नहीं है।
गौरतलब है कि बिहार में चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग ने मतदाता सूची के 'स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन' (एसआईआर) की कवायद शुरु की और इसके लिए केवल एक महीने का ही वक्त मतदाताओं को दिया कि वे अपने नागरिक होने का प्रमाण खुद ही पेश करें। आयोग ने 11 दस्तावेज की सूची जारी की और कहा कि इनमें से किसी को पेश करने पर ही किसी का नाम मतदाता सूची में आएगा, अन्यथा काट दिया जाएगा। आसान शब्दों में कहें तो चुनाव आयोग ने बिहार के मतदाताओं से खुद के नागरिक होने का सबूत मांगा, जबकि इसमें आधार कार्ड, राशन कार्ड और मनरेगा कार्ड को मान्यता नहीं दी, जबकि करोड़ों गरीबों के पास यही सबसे सुलभ पहचानपत्र होते हैं और इन्हें भी सरकार ही जारी करती है।
इस फैसले को लोकतांत्रिक अधिकार पर सीधा हमला करते हुए चुनाव आयोग के समक्ष विपक्ष ने अपना विरोध दर्ज कराया था, फिर भी कोई समाधान नहीं निकला तो विपक्ष ने 9 जुलाई को बिहार बंद करवाया और इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे भी खटखटाए। 'एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अलावा राजद सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, कांग्रेस के के. सी. वेणुगोपाल, राकांपा (शरद पवार गुट) की सुप्रिया सुले, भाकपा के डी. राजा, सपा के हरिंदर सिंह मलिक, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के अरविंद सावंत, झामुमो के सरफ़राज़ अहमद, और भाकपा (माले) के दीपंकर भट्टाचार्य, इन सभी ने शीर्ष अदालत से चुनाव आयोग के आदेश को रद्द करने की मांग की है।
याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकर नारायणन ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत मतदाता सूची का पुनरीक्षण किया जा सकता है, लेकिन इस विशेष गहन पुनरीक्षण में कई समस्याएं हैं। उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया लगभग 7.9 करोड़ नागरिकों को कवर करेगी, और इसमें वोटर आईडी और आधार कार्ड जैसे दस्तावेज़ को भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है।
याचिकाकेर्ताओं ने कहा कि वोटर लिस्ट का रिवीजन मतदाताओं पर अपनी नागरिकता साबित करने का दबाव डालता है जबकि यह काम चुनाव आयोग का है। उन्होंने कहा कि अब जब चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं और चुनाव आयोग कह रहा है कि वह 30 दिनों में पूरी मतदाता सूची का रिवीजन करेगा। इस मामले में गुरुवार को पहली सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की बेंच ने मामले में सुनवाई की। बेंच ने चुनाव आयोग से पूछा कि आधार कार्ड को स्वीकार क्यों नहीं किया गया। जिस पर चुनाव आयोग की ओर से पेश सीनियर वकील राकेश द्विवेदी ने जवाब दिया कि आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकता। तब जस्टिस धूलिया ने कहा, 'लेकिन नागरिकता का निर्धारण चुनाव आयोग का नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय का कार्यक्षेत्र है। इस पर चुनाव आयोग की ओर से जवाब दिया गया कि आयोग को अनुच्छेद 326 के तहत अधिकार प्राप्त हैं। वहीं जस्टिस बागची ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अगर आपका निर्णय यह है कि 2025 की मतदाता सूची में पहले से दर्ज व्यक्ति को भी मताधिकार से वंचित किया जाए, तो उस व्यक्ति को अपील करनी होगी, पूरी प्रक्रिया से गुजरना होगा और अंतत: आगामी चुनाव में मतदान का अधिकार छिन जाएगा। आप मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए गहन जांच कर सकते हैं ताकि गैर-नागरिक सूची में न रहें इसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन अगर आप यह कार्य प्रस्तावित चुनाव से कुछ ही महीने पहले शुरू करते हैं, तो यह गंभीर चिंता का विषय है।
शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया को रद्द करने का आदेश तो नहीं दिया, लेकिन आयोग को तीन दस्तावेज आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड स्वीकार करने का सुझाव दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाओं में लोकतंत्र से जुड़ा अहम सवाल उठाया गया है, जो मतदान के अधिकार से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के वकील से पूछा कि उसने बिहार में वोटर लिस्ट के रिवीजन के काम को इतनी देर में क्यों शुरू किया? हालांकि अदालत ने कहा कि इस प्रक्रिया में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन इसे चुनाव के काफी पहले किया जाना चाहिए था।
शीर्ष अदालत की टिप्पणी से जाहिर है कि याचिकाकर्ताओं ने जो उलझनें दिखाई हैं, अदालत भी उनसे इत्तेफाक रखती है। इस मामले में अगली सुनवाई अब 28 जुलाई को होगी, उसके बाद ही अंतिम फैसला आएगा। लेकिन गुरुवार को हुई सुनवाई से इतना तो जाहिर हो गया कि विपक्ष की जिन आपत्तियों को चुनाव आयोग ने सेंत-मेंत में खारिज कर दिया था, वह वाजिब आपत्तियां थीं।


