मिट्टी-पानी बचाने की अच्छी परंपराएं
मध्यप्रदेश का सतपुड़ा अंचल बारिश आते ही हरा-भरा हो गया है। पहाड़ों व जंगलों की खूबसूरती देखते ही बनती है। जो जंगल गर्मी के दिनों में सूखे व उजाड़ व उदास दिखते हैं

- बाबा मायाराम
सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सिंचाई के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी। और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल की गोबर खाद वाली की खेती की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। इस इलाके में मुख्य रूप से आदिवासी सूखी खेती भी करते हैं।
मध्यप्रदेश का सतपुड़ा अंचल बारिश आते ही हरा-भरा हो गया है। पहाड़ों व जंगलों की खूबसूरती देखते ही बनती है। जो जंगल गर्मी के दिनों में सूखे व उजाड़ व उदास दिखते हैं, वे मानसून की बारिश आते ही हरे-भरे और सजीव हो उठे हैं। आज के इस कॉलम में प्रकृति के इस अनूठे उपहार पर ही चर्चा करना चाहूंगा, जिससे प्रकृति को हम समझें और उसे संरक्षित करें।
मैं रोज साइकिल की सैर करता हूं। इन दिनों किसान धान की रोपाई करने में लगे हैं। खेतों में रंग-बिरंगी पोशाकों में महिलाएं धान रोपाई का काम कर रही हैं। कुछ किसान ट्रेक्टर से खेतों की जुताई कर रहे हैं। कुछ खेतों की बागुड़ कर रहे हैं, जिससे उनकी फसल सुरक्षा हो सके।
तीन-चार दिनों से लगातार बारिश हो रही है। कभी रिमझिम, तो कभी तेज बारिश बहुत लुभा रही है। गर्मी से राहत तो मिली ही है, खेती में भी रौनक आ गई है। खेती का काम शुरू हो गया है। पूरा वातावरण खुशनुमा हो गया है।
मुझे याद आ रहा है मेरा बचपन। उन दिनों बारिश के पहले कच्चे घरों की मरम्मत का काम होता था। पशुओं के लिए भूसा, सूखी घास एकत्र कर रख ली जाती थी। क्योंकि बारिश चार महीने बहुत होती थी। बुजुर्ग लोग जूट या बावेर घास से रस्सी बनाते थे। जिसे खाट बुनने, बैलगाड़ी के लिए और हल जुताई जैसे कामों में इस्तेमाल करते थे।
बारिश के पहले ही महिलाएं रसोई के लिए मसाले तैयार कर लेती थीं। बारिश में पुराने कपड़ों से थैले, रजाई, पैरदान जैसी चीजें बनाए जाते थे। यह ऐसा समय होता था, जब ज्यादा काम नहीं होता था। क्योंकि बारिश के कारण घर से निकलना मुश्किल होता था। घर में रहकर ही छोटे-मोटे काम करना होता था।
बारिश के दिनों में महुआ व दाल को खाना ज्यादा पसंद किया जाता था। महुआ भूंजकर व तिल के साथ भुरका बनाकर भी खाया जाता था। महुआ के लड्डू भी बनाए जाते थे। इस तरह महुआ लोगों का प्रिय भोजन हुआ करता था। यह शायद इसलिए भी कि उन दिनों अनाज कम होता था।
नदी नालों में बाढ़ आ जाती थी। तालाब, कुएं लबालब भर जाते थे। चारों तरफ पानी-पानी हो जाता था। मेरी मां छत के नीचे बर्तन रखती थी, जिससे उसमें पानी एकत्र होता था। उस पानी का इस्तेमाल पशुओं को पानी पिलाने व बर्तन मांजने जैसे कामों में होता था।
इन दिनों बारिश से जमीन, चट्टानें और पेड़ों की नंगी डालियों में नई जान आ गई है। चारों तरफ हरियाली फूट पड़ी है। पेड़ों में नए पत्ते आ गए हैं और हरे-भरे हो गए हैं। जब हवा चलती है तो उनकी शाखाएं हवा में डोलने लगती हैं। चिड़ियां फुदकने लगती हैं। बयां जैसी चिड़ियों ने घोंसले बना लिए हैं, उनके आसपास मंडराती रहती हैं। उन्हें भी गर्मी से राहत मिली है।
जो नदी नाले गर्मी में सूख जाते हैं, या कहें अदृश्य हो जाते हैं, बारिश में कल-कल बहने लगे हैं। पहाड़ियों से निकलकर झरने निनाद करते बहने लगते हैं। इनको देखकर ऐसा लगता है जैसे गुमा हुआ व्यक्ति अचानक से मिल जाता है।
मौसम में नई बहार आ जाती है। जगह-जगह से छोटे-बड़े पौधे निकल आते हैं। पेड़ों के बीच से, चट्टानों की दरारों से और जहां आप सोच भी नहीं सकते वहां से पौधे झांकने लगते हैं। मेढकों की टर्र टर्र आवाजें आ रही हैं। खेतों में भटकते सियार व लोमड़ी भी घूमते दिख जाते हैं।
बारिश के दौरान पेड़ों से बूंदें टपकना, पेड़ों की डालियों में लड़ियों सी सज जाती हैं। घने मिश्रित के वनों के ऊपर छतरी से छाए बादल मंडरा रहे हैं, धुएं सा आभास होता है, पानी की फुहार गिरती रहती है, रिमझिम-रिमझिम, धीरे-धीरे। पहाड़ों पर बादल उड़ते दिखते हैं।
इन दिनों सागौन के चौड़े पत्ते लुभा रहे हैं। इसके जुड़वा पत्ते हवा में हिलते हैं। हाथ के स्पर्श से खरखराते हैं। मुझे याद आ रही है जब इनके पत्तों से चरवाहे व किसान छाता बनाते थे, जो बारिश से बचाता था।
सागौन, इमारती लकड़ी है। इसके खुरदरे पत्तों से किसान खेतों में ढबुआ (मंडप) बनाते थे, जिससे वे रखवाली करने के दौरान रहते हैं। जंगल वाले इलाकों में अब भी बनाते हैं। इसके पत्तों से बने ढबुए बहुत ठंडे होते हैं। इन ढबुओं में बैठकर खेतों की रखवाली करते हैं।
नर्मदा जो विन्ध्यांचल और सतपुड़ा के बीच मैकल पर्वत से निकलती है, इसलिये इसे मैकलसुता कहते हैं। इन दिनों तेज बहने लगी है। देनवा, जो तवा की सहायक नदी है, में एक दो बार बाढ़ आ चुकी है। तवा, नर्मदा की सहायक नदी है। उसने अपनी बाहें फैला दी हैं, गर्मी में उसकी पतली धार हो गई थी, अब तेज बहाव के साथ बह रही है।
हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना या अनियमित होना। भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। यानी ऊर्जा का संकट भी है।
नर्मदांचल में हवेली पद्धति में पानी की खेती का अच्छा उदाहरण है, जिसमें मिट्टी-पानी का संरक्षण होता था। खेतों में चारों ओर ऊंची मेड़ बनाकर बारिश का पानी रोका जाता था। जमीन सूखने पर पानी निकाल दिया जाता था और फसल लगा दी जाती थी। इसके बाद सिंचाई की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। यानी बारिश में पानी रोकते थे, और गर्मी की फसल लगाते थे। अभी भी जहां सिंचाई नहीं है, वहां किसान बारिश में खेत खाली छोड़ देते हैं, जिससे मिट्टी को फिर से उर्वर बनने में मदद मिली है। खेत को आराम मिलता है, और फिर गर्मी की फसल लेते हैं। इस तरह मिट्टी-पानी का संरक्षण भी होता है।
इस तरह हमें मिट्टी-पानी का संरक्षण करना जरूरी है। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को वहीं लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे, इसके लिए मेड़बंदी की जा सकती है। गांव का पानी गांव में रहे, इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चैक डेम बनाए जा सकते हैं। पेड़, तरह-तरह की झाडियां व घास की हरियाली बढ़ाकर जल संरक्षण किया जा सकता है।
शहरों में जल संचयन के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है।
इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सिंचाई के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी। और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल की गोबर खाद वाली की खेती की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। इस इलाके में मुख्य रूप से आदिवासी सूखी खेती भी करते हैं। यानी बारिश के पानी पर आधारित। मक्का, ज्वार, कोदो, कुटकी और कई तरह की सब्जियां। धान भी लगाते हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मानसून में सतपुड़ा का नजारा बहुत खूबसूरत होता है। हमें समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इसके साथ ही, नदियों को बचाने की जरूरत है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?