एकला चलो या गठबंधन : कांग्रेस के 25 साल में कई प्रयोग!
शकील अख्तर गठबंधन हो या एकला चलो यह पार्टी की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका कोई सिद्धांत या नियम नहीं है। 1967 में समाजवादियों से गठबंधन करके ही भाजपा के तब के जनसंघ के देश की मुख्यधारा की राजनीति में आने के द्वार खुले। अगर लोहिया अपने अंध नेहरू विरोध में जनसंघ को साथ नहीं लाते तो वह हिन्दू महासभा की तरह ही सीमित दायरे की पार्टी बनकर रह जाती। कांग्रेस में प्रयोग का दौर लंबा चल गया। पार्टी अपनी क्षमता और कमजोरियों को पहचानने के बदले गठबंधन करने या न करने के एक छोर से दूसरे छोर के बीच लगभग 25 सालों से झूल रही है

- शकील अख्तर
गठबंधन हो या एकला चलो यह पार्टी की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका कोई सिद्धांत या नियम नहीं है। 1967 में समाजवादियों से गठबंधन करके ही भाजपा के तब के जनसंघ के देश की मुख्यधारा की राजनीति में आने के द्वार खुले। अगर लोहिया अपने अंध नेहरू विरोध में जनसंघ को साथ नहीं लाते तो वह हिन्दू महासभा की तरह ही सीमित दायरे की पार्टी बनकर रह जाती।
कांग्रेस में प्रयोग का दौर लंबा चल गया। पार्टी अपनी क्षमता और कमजोरियों को पहचानने के बदले गठबंधन करने या न करने के एक छोर से दूसरे छोर के बीच लगभग 25 सालों से झूल रही है।
देश की सबसे पुरानी पार्टी जो आजादी के आन्दोलन के नेतृत्व में कभी भ्रम या अनिश्चितता का शिकार नहीं हुई वह अब अधिकतर अनिर्णय की स्थिति में रहने लगी है। 139 साल पुरानी पार्टी है। पुराना होने का मतलब पुख्तगी (मजबूती) होता है। विरासत से इरादों की मजबूती सीखना। इन्दिरा गांधी कहती थीं- दूरदृष्टि कड़ी मेहनत पुख्ता इरादा। सीखना चाहिए। लोगों को अभी भी कांग्रेस से बहुत अपेक्षाएं हैं। जो विपक्षी दल इन्डिया गठबंधन टूट जाने की बातें कर रहे हैं वह भी यह कह रहे हैं कि कांग्रेस को इसे बचाने के लिए कुछ पहल करना चाहिए। सीधी बात है कि राष्ट्रीय दल एकमात्र है। इन्डिया गठबंधन के नेतृत्व का दावा कोई भी करे मगर किसी की पहुंच पूरे देश तक नहीं है। साढ़े दस साल से सत्ता में बनी भाजपा की भी नहीं।
उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम हर जगह हर गांव कस्बे में कांग्रेस का झंडा होगा। कोई न कोई कांग्रेसी होगा जो 26 जनवरी 15 अगस्त को लेकर निकलता होगा। कांग्रेस को आप खारिज कर नहीं सकते। प्रधानमंत्री मोदी का इसीलिए सारा जोर कांग्रेस पर लगा रहता है।
यह कांग्रेस की क्षमता है। जिसे उसे समझने की जरूरत है। बेलगावी कर्नाटक की सीडब्ल्यूसी में कांग्रेस ने कहा कि 2025 में कोई काम नहीं है। सिर्फ दो चुनाव हैं। दिल्ली और फिर साल के आखिर में बिहार। दोनों जगह वह भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी नहीं है। इसलिए कांग्रेस ने कहा कि वह 2025 को संगठन का साल बनाएगी। अच्छी बात है। क्योंकि खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे इससे पहले दिल्ली की सीडब्ल्यूसी में बहुत ही साफ शब्दों में पार्टी की कमजोरियों को स्वीकार कर चुके हैं।
एक संगठन नहीं। दो भयानक गुटबाजी। एक दूसरे को हराने में सारी ताकत लगाना। तीन कोई रणनीति नहीं। योजना बनाकर चुनाव नहीं लड़ना। चार चुनावों की पहले से तैयारी नहीं करना। सामने आ जाने पर जैसे तैसे लड़ लेना।
यह कमजोरियां हैं। तो ताकत और कमजोरी दोनों हैं। मगर उन्हें समझने और फिर उन पर काम करना की जरूरत है। इस साल की शुरूआत संगठन के हिसाब से ठीक हो रही है कि उसका अपना नया मुख्यालय बनकर तैयार हो गया है। और 15 जनवरी को कांग्रेस संसदीय दल की नेता उसका उद्घाटन कर रही हैं। सोनिया ने ही इसका शिलान्यास किया था। बहुत पहले जब उनकी केन्द्र में सरकार थी। कांग्रेस के स्थापना दिवस 28 दिसंबर, 2009 को। पूरे 15 साल हो गए। अब बना।
खैर! साल अच्छा है। लेकिन यह पार्टी आफिस बनने, संगठन का साल घोषित करने के मामले कांग्रेस के अपने हैं। आन्तरिक। लेकिन दूसरा पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है। विपक्षी एकता का। कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा। इसलिए कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने कभी भी बीजेपी से समझौता नहीं किया। और आज लड़ाई बीजेपी से ही है। और उस बीजेपी से जो अपने इतिहास में सबसे मजबूत इसी समय है।
बाकी सारे विपक्षी दल कभी ना कभी बीजेपी के साथ रह चुके हैं उसका समर्थन कर चुके हैं। 1967 में लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के समय, 1975 में जेपी आन्दोलन के समय, 1989 में वीपी के समय और लास्ट अभी 2012 -13 के अन्ना आन्दोलन के समय। लेफ्ट लालू, मुलायम, ममता सब कभी ना कभी बीजेपी के साथ एक नाव पर सवारी कर चुके हैं। कांग्रेस को हटाने के नाम पर बीजेपी का साथ सबने दिया। मगर कांग्रेस अभी है। जनता उसे चाहती है। कांग्रेस के बारे में वह शेर जो सुन-सुना कर हो तो बहुत प्रचलित गया है। मगर सटीक बैठता है कि-'मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो ...!'
और इसीलिए कांग्रेस की जिम्मेदारी भी बड़ी है। इन्डिया गठबंधन उसकी कोशिशों से बना था। दो काम एक साथ हो रहे थे। राहुल की पहली यात्रा। भारत जोड़ो। और इन्डिया गठबंधन की बैठकें। पटना, बैंगलूरू, मुम्बई। एकता संभव हुई। इन्डिया गठबंधन बना। और सफल रहा।
रिएक्शन में भाजपा ने एनडीए की बैठक की। उस एनडीए की जिसका नाम भी बीजेपी नहीं लेती थी। इन्डिया गठबंधन पर तगड़े हमले शुरू हुए। भाजपा, मीडिया, मोदी सबके। उनका डर था। और वह सही निकला।
लोकसभा में भाजपा बहुमत से दूर रह गई। कहां उसके पास 2019 में 303 सीटें थीं। और 2024 में मोदी चार सौ पार का नारा लगा रहे थे। वहीं विपक्षी एकता के दम पर भाजपा के केवल 240 पर रुक गई। चन्द्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, चिराग पासवान, जयंत चौधरी और मांझी ऐसे कई छोटे-छोटे दलों का समर्थन लेना पड़ा। जैसा राहुल ने कहा 56 इंच की छाती नहीं रही। सही बात है। और यह संभव हुआ एक होकर लड़ने से। जनता का डर खत्म हुआ। वह सामने आई और छाती सिकुड़ गई।
अब दोनों बातें अलग-अलग हैं। पहली कांग्रेस के अपने संगठन की। जिसे उसे बिना किसी के लिहाज, फेवर, नाराज होने के डर और जो एक शब्द कांग्रेस में चलता है एडजस्ट करना से दूर होकर करना पड़ेगा। खुद खरगे के मानने, सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने के बाद कि संगठन कहीं नहीं है इस काम को सबसे टाप प्रायरटी पर करना होगा। बेलगावी सीडब्ल्यूसी में एक बात और कही थी कि योग्य लोगों को ढूंढ कर लाना होगा। यह सबसे महत्वपूर्ण है। गणेश परिक्रमा करने वालों से बचना होगा।
दूसरी बात विपक्षी एकता की। यह भी उतनी ही जरूरी है। आप खुद समर्थ हों और साथ में साथी हों तो लड़ाई आसान हो जाती है। नहीं तो अकेले-अकेले सब दीवार से सिर फोड़ते रहते हैं।
कांग्रेस ने 2004 में जो वाजपेयी सरकार को हराकर जीत पाई थी वह गठबंधन राजनीति का ही परिणाम था। कांग्रेस ने 1998 में अपने पचमढ़ी सम्मेलन में एकला चलो की नीति अख्तियार की थी। मगर उसके बाद हुए 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई।
सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। उन्होंने 2003 में दूसरा चिंतन सम्मेलन किया। शिमला में। और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए गठबंधन की राजनीति को स्वीकार किया। नतीजा फौरन मिला। 2004 में केन्द्र में यूपीए की सरकार बन गई।
गठबंधन हो या एकला चलो यह पार्टी की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका कोई सिद्धांत या नियम नहीं है। 1967 में समाजवादियों से गठबंधन करके ही भाजपा के तब के जनसंघ के देश की मुख्यधारा की राजनीति में आने के द्वार खुले। अगर लोहिया अपने अंध नेहरू विरोध में जनसंघ को साथ नहीं लाते तो वह हिन्दू महासभा की तरह ही सीमित दायरे की पार्टी बनकर रह जाती। इसके बाद भाजपा सत्ता और अवसरवाद का मतलब समझने लगी। 1977 में उसने सत्ता के लिए अपनी पार्टी ही खतम कर दी। जनता पार्टी में विलिन हो गई। और फिर जब मोदी 2019 में अकेले 303 लाए तो उन्होंने गठबंधन एनडीए की बात करना ही बंद कर दी।
मतलब राजनीति परिस्थितियों के अनुसार होती है। राजीव गांधी जब 2004 में चार सौ से उपर सीटें लेकर आए तो क्या कांग्रेस अलाइंस का ए भी सुनना पसंद करती थी? आज अगर वह अकेले मोदी का मुकाबला कर सकती है तो उसे भी अलाइंस का ए नहीं सुनना चाहिए।
मगर ऐसा है नहीं। दिल्ली में तो खैर अलग -अलग लड़ रहे हैं। इसे कांग्रेस को अपवाद बताना चाहिए और बिहार के लिए और आगे के लिए स्पष्ट सोच के साथ सामने आना चाहिए। बिहार का जिक्र आया तो लास्ट यह और बता दें कि बिहार और यूपी में कांग्रेस पिछले 35 साल से यह जिगजैग ( कभी हां कभी ना ) कर रही है। नतीजा कुछ नहीं।
मतलब वही है। परिस्थिति के अनुसार समझौता या अकेले। मगर संगठन का काम पहले और मजबूती से। बिहार यूपी में है ही नहीं। बस अध्यक्ष पर अध्यक्ष बदले जाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


