ललित सुरजन की कलम से- दिल्ली में धुआँ क्यों है?
'हम अपने अनुभव से कह सकते हैं कि निर्वाचित सरकारों और सरकार चलाने वाले अहंकारी अधिकारियों की दृष्टि में विशेषज्ञों की राय कोई अहमियत नहीं रखती

'हम अपने अनुभव से कह सकते हैं कि निर्वाचित सरकारों और सरकार चलाने वाले अहंकारी अधिकारियों की दृष्टि में विशेषज्ञों की राय कोई अहमियत नहीं रखती। उन्हें जो करना है वही करते हैं। और यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है।
हाल के बरसों में यह मानसिकता और प्रबल हुई है। बात चाहे ताजमहल के बिल्कुल निकट तेलशोधन संयंत्र लगाने की हो, चाहे मुंबई में नमक की खेती वाले डालों पर कब्जा करने की हो, चाहे गोवा और तमिलनाडु में मैंग्रोव के कुंज काटकर भूमाफिया को जमीन देने की हो और चाहे छत्तीसगढ़ में किसानों की भूमि और बांधों का पानी उद्योगपतियों को देने की हो, या फिर ओडिशा में समुद्र तट के केतकीकुंज काटकर इस्पात का कारखाना लगाने की हो।
मतलब यह कि न किसी को पर्यावरण की चिंता है, न प्राकृतिक विरासत के संरक्षण की और न भावी पीढिय़ों की सुरक्षा की। इसलिए छत्तीसगढ़ में नदी का एक हिस्सा कांग्रेस सरकार द्वारा उद्योगपति को बेच दिया जाता है किन्तु भाजपा सरकार उस ठेके को निरस्त करने का कदम नहीं उठाती।'
'यह तो हुई एक बात। दूसरी बात हमारी जीवन शैली से ताल्लुक रखती है। महान लेखक टाल्सटॉय ने भले ही नीति कथा लिखी हो कि मरने के बाद मनुष्य को दफनाने के लिए दो गज जमीन से अधिक की आवश्यकता नहीं होती और भले ही साधु-संत कहते हों कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है, किन्तु आज तो ऐसा लगता है जैसे हर मरने वाला अपनी पूरी संपत्ति साथ लेकर ही ऊपर जाएगा। क्या मालूम ऊपर जाकर चित्रगुप्त को रिश्वत देना पड़े या कि धर्मराज को ताकि नरक में भी स्वर्ग का सुख मिल सके।
अगर ऐसी सोच नहीं है, तो फिर यह संचय वृत्ति क्यों कर समाज में विकसित हो रही है? भारत की स्थिति तो बिल्कुल विचित्र है। भोगवादी पश्चिम में धनी-धोरी लोग अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा दान कर देते हैं, लेकिन यहां जो सत्ताइस मंजिल का महल खड़ा करते हैं वे परमार्थ के लिए कौड़ी भी खर्च नहीं करते।'
(देशबन्धु में 10 नवम्बर 2016 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/11/blog-post_9.html


