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ललित सुरजन की कलम से- यात्रा वृतांत: शिलांग : इन पुरखों को प्रणाम

'वाकया कोई दो सौ साल पुराना है। सन् 1830-40 के आसपास का। मेघालय की राजधानी शिलांग से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर रिवाई गांव के निकट एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की ओर हम चलते हैं

ललित सुरजन की कलम से- यात्रा वृतांत: शिलांग : इन पुरखों को प्रणाम
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'वाकया कोई दो सौ साल पुराना है। सन् 1830-40 के आसपास का। मेघालय की राजधानी शिलांग से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर रिवाई गांव के निकट एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की ओर हम चलते हैं। यह एक अद्भुत पुल है।

यह न सीमेंट से बना है और न पत्थर से, और न ही लकड़ी के तख्तों से। सीमेंट का आविष्कार तो सौ साल बाद 1938 में हुआ। यह खासी जनजाति का इलाका है। नदी के उस पार गांव के लोगों को बरसात के मौसम में चारों तरफ से संपर्क कट जाने के कारण अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ता था। तब इस गांव के बुद्धिमानों ने एक उपाय खोजा। उन्होंने दोनों किनारों पर रबर के बहुत से पेड़ लगाए।

प्रसंगवश कह दूं कि रबर पीपल की प्रजाति का ही एक वृक्ष है। ये पेड़ थोड़े बड़े हुए और इनकी जड़ें हवा में झूलने लगीं तो जड़ों को आपस में बांधकर पुल बना लिया गया। सुनने में बात बहुत सरल लगती है, लेकिन पेड़ों को लगाना, जड़़ों का बढऩा, उनको आपस में जोडऩा और ऐसी मजबूती देना कि आने-जाने में कोई भय न हो, क्या कोई आसान काम रहा होगा?'

(देशबंधु में 30 मार्च 2017 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2017/03/blog-post_29.html


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