ललित सुरजन की कलम से- वर्ग विभेद की भाषा व योजनाएं
'स्टार्ट अप इंडिया एक ऐसा ही कार्यक्रम है जिसको लेकर मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं

'स्टार्ट अप इंडिया एक ऐसा ही कार्यक्रम है जिसको लेकर मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं। एक तो इस योजना का लाभ मुख्यरूप से देश के अभिजात शिक्षण संस्थानों यथा आईआईटी अथवा आईआईएम से निकले युवा ही उठा पाएंगे। दूसरे, निजी क्षेत्र के निवेशक पहले से यह काम कर रहे हैं। सरकार को उसमें जाने की आवश्यकता नहीं थी। तीसरे, इसमें रोजगार के बहुत अधिक अवसर पैदा होने की गुंजाइश नहीं दिखती।
दूसरे शब्दों में भारत के उन अधिसंख्यक युवाओं के लिए स्टार्ट अप इंडिया का कोई मतलब नहीं है जो अपने प्रदेश के किसी सामान्य विश्वविद्यालय की डिग्री हाथ में लिए रोजगार तलाश रहे हैं और जो दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी तक बन जाने का अवसर पाने के लिए मारे-मारे यहां से वहां फिरते हैं। आप कहेंगे कि इनके लिए मुद्रा बैंक है तो फिर उन बैंक मैनेजरों से जाकर पूछिए जो इन्हें ऋण देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं। मतलब फिर वही खाई बढऩे की आशंका यहां भी है।'
'हमारी राय में तो स्टार्ट अप शब्द ही अपने आप में भ्रामक है। वह भले ही दुनिया के किसी भी देश में लागू हो। प्रतिभाशाली युवाओं को अपना व्यवसाय खड़ा करने के लिए अपने संपर्कों के बल पर पूंजी जुटाना मुश्किल नहीं होता। यद्यपि कुछेक ऐसे भी होते हैं जो अपनी ज़िद और लगन के बल पर व्यवसाय स्थापित कर लेते हैं। लेकिन बाद में क्या होता है? विश्व का पूंजी बाजार एकाधिकार को बढ़ावा देता है। एक दिन बड़ी मछली छोटी मछली को निगल लेती है। स्टार्ट अप के अनेक प्रसंगों में हमने इसे देखा है।'
(देशबन्धु में 28 जनवरी 2016 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/03/blog-post_27.html


