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ललित सुरजन की कलम से- छोटे राज्य व अन्य इकाईयां

'भारत के तेलगु भाषा-भाषियों के लिए आंध्रप्रदेश का विभाजन व तेलंगाना का निर्माण स्वाभाविक ही एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा है

ललित सुरजन की कलम से- छोटे राज्य व अन्य इकाईयां
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'भारत के तेलगु भाषा-भाषियों के लिए आंध्रप्रदेश का विभाजन व तेलंगाना का निर्माण स्वाभाविक ही एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा है, किन्तु अब जबकि फैसला हो चुका है, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख इस मुद्दे के व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना न सिर्फ तेलगु समाज बल्कि पूरे देश के लिए हितकर होगा।

15 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र राष्ट्र की उदय-वेला में भारत की आबादी बत्तीस करोड़ के आसपास थी। गत सड़सठ वर्षों में यह आंकड़ा एक अरब बीस करोड़ के पार चला गया है।

ध्यान आता है कि 1956 में राज्य पुनर्गठन के समय मध्यप्रदेश की आबादी मात्र दो करोड़ थी, जबकि सन् 2000 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय सिर्फ छत्तीसगढ क़ी ही आबादी इतनी थी। ऐसे ही आंकड़े अन्य प्रदेशों के होंगे। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि देश के लगभग हर प्रांत पर बढ़ती आबादी का दबाव लगातार बढ़ रहा है। यह एक व्यवहारिक तथ्य है जिसके आधार पर हम लंबे समय से छोटे राज्यों की वकालत करते आए हैं।'

'सन् 2000 में जो तीन नए प्रांत बने उनके पीछे भी कुछ भावनात्मक और कुछ राजनीतिक कारण थे। एनडीए सरकार ने व्यवहारिक आधारों पर नए प्रांतों के गठन का फैसला नहीं लिया था, किन्तु आज तेरह साल से कुछ अधिक समय बीत जाने के बाद यह स्पष्ट है कि तीन राज्यों के विभाजन से किसी भी राज्य को न कोई नुकसान पहुंचा और न कोई असुविधा हुई, बल्कि पुनर्गठन से जो नए राय बने उनमें बेहतर प्रशासन की संभावनाएं विकसित हुईं। यह अलग विवेचन का विषय है कि ये संभावनाएं फलीभूत हुईं या नहीं। अगर उसमें कोई कमी रही है तो उसके कारण अलग हैं। इस तरह विचार करने से हमें लगता है कि तेलंगाना राज्य गठित करने का निर्णय गलत नहीं था।'

(देशबन्धु में 27 फरवरी 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/02/blog-post_26.html


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