ललित सुरजन की कलम से- विरासत संरक्षण में तकनीकी की भूमिका
'विरासत अथवा धरोहर के बारे में सही समझ हमारे लिए कई मायनों में उपयोगी होगी। सबसे पहले तो कोई भी विरासत हमें अहसास दिलाती है कि यह मेरी चीज है, मैं इसका अधिकारी हूं

'विरासत अथवा धरोहर के बारे में सही समझ हमारे लिए कई मायनों में उपयोगी होगी। सबसे पहले तो कोई भी विरासत हमें अहसास दिलाती है कि यह मेरी चीज है, मैं इसका अधिकारी हूं। यह ठीक उसी तरह की भावना है जैसे दादा-दादी या माता-पिता ने हमें कोई ऐसी भेंट दी हो जिसे हम हमेशा संभालकर रखने की इच्छा रखते हैं। दूसरे, विरासत से हममें उचित गर्व या अभिमान का भाव जागृत होता है।
श्रीनगर की डल झील हो या जैसलमेर का किला, ताजमहल हो या अजंता के चित्र, इन सबके बारे में सोचते हुए हमारा मन फूल जाता है। हम अपनी नजरों में ही कहीं ऊंचे उठ जाते हैं। इसका विपर्यय भी हमें नहीं भूलना चाहिए। बाज वक्त हम यह कहने से नहीं चूकते कि अमेरिका की संस्कृति चार सौ साल पुरानी है, जबकि हमारी हजारों साल पुरानी। ऐसी तुलना करना और ऐसी भावना रखना थोथे अहंकार व मानसिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।'
'विरासत की समझ से हमें इतिहास की समझ भी मिलती है और अतीत से स्वयं को जोड़ने का अवसर भी। गुजरात के समुद्र तट पर सोमनाथ के मंदिर को देखकर एक विदेशी आक्रांता का स्मरण सहज हो जाता है, लेकिन सोमनाथ से मात्र सौ किलोमीटर दूर उसी पश्चिमी समुद्र तट पर द्वारिका का मंदिर अक्षुण्ण देखकर यह प्रश्न अपने आप मन में आता है कि इसे आक्रांताओं ने क्यों छोड़ दिया।
इसी तरह एक ओर जलियांवाला बाग की गोलियों से छलनी दीवार औपनिवेशिक क्रूरता की याद दिलाती है, तो 1911 में तामीर मैसूर का भव्य राजप्रासाद सोचने पर बाध्य करता है कि राजे-महाराजे किस तरह से विदेशी शासकों की ताबेदारी कर रहे थे। इस बात को समेटते हुए कहा जा सकता है कि ऐसी प्राचीन विरासतों का संरक्षण करना इतिहास की सही समझ विकसित करने के लिए न सिर्फ सहायक बल्कि आवश्यक भी है।'
(अक्षर पर्व नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/12/blog-post_9.html


