Top
Begin typing your search above and press return to search.

ललित सुरजन की कलम से - सिद्धांत बनाम पद

जहां तक अपने देश का सवाल है, हमने अपने जनतंत्र के शैशवकाल से ही एक चमकदार मानक राजनेताओं के लिए बना रखा है

ललित सुरजन की कलम से - सिद्धांत बनाम पद
X

'जहां तक अपने देश का सवाल है, हमने अपने जनतंत्र के शैशवकाल से ही एक चमकदार मानक राजनेताओं के लिए बना रखा है। जो उस कसौटी पर खरा उतरे, वही सोना, बाकी पत्थर तो सब तरफ बिखरे मिलते हैं।

आप जान रहे हैं कि मैं सन् 1954 में आपको ले जा रहा हूं, जब तत्कालीन रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना होने पर नैतिक दायित्व लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ऐसा उन्होंने स्वयं किया, प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर किया या प्रधानमंत्री की सलाह से किया, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन यह स्वयंसिद्ध है कि भारतीय लोकतंत्र में अपनी तरह के इस पहिले दृष्टांत के चलते लालबहादुर शास्त्री की जो निर्मल-उज्जवल छवि निर्मित हुई, वह आज तक कायम है।

यदि पं. नेहरू के जीवनकाल में ही उनके उत्तराधिकारी के रूप में शास्त्रीजी का नाम अव्वल लिया जाता था तो उसके पीछे उनकी यही अप्रतिम छवि थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद एवं 1965 युद्ध के समय जब उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक समय उपवास रख अन्न बचाने की अपील की तो करोड़ों लोगों ने उसे एक तरह से आदेश मानकर तत्काल स्वीकार कर लिया। मैं ऐसे मित्रों को जानता हूं जो आज भी सोमवार की शाम शास्त्रीजी को श्रृद्धांजलि के रूप में उपवास रखते हैं। क्या आज ऐसे दृष्टांत की कोई प्रासंगिकता या उपयोगिता है?'

(देशबन्धु में 16 जुलाई 2015 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/07/blog-post_15.html



Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it