ललित सुरजन की कलम से - ओसियां और जोधपुर
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'दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान। जैसे रेत का समुद्र। आज से कई लाख साल पहले यहां समुद्र ही तो था। इस जनहीन विस्तार के बीच में कहीं-कहीं बालुई चट्टानों से बनी पहाडिय़ां। मरुस्थल की जड़ता को तोड़ती हुई। मैं कल्पना कर रहा हूं आज से बारह-तेरह सौ साल पहले के समय की। इस निर्जन में किसे और क्यों सूझा होगा कि यहां मंदिर बनाया जाए तो क्या शायद यहां कोई छोटी-मोटी बस्ती रही होगी?
वहीं कहीं आसपास मीठे पानी का कोई स्रोत रहा होगा। अगर पानी न होता तो मनुष्य की बसाहट भी कैसे होती? मैं कल्पना के घोड़े दौड़ाता हूं तो एक बात समझ आती है। यह जगह पश्चिमी भारत से उत्तर भारत को जोडऩे वाले किसी यात्रापथ पर रही होगी।
शायद प्राचीन सिल्क रूट की कोई शाखा! आते-जाते काफिले मीठे पानी के सरोवर के पास डेरा डालते होंगे। धीरे-धीरे यहां स्थायी बस्ती बसी होगी। तब पहले कोई मुखिया, फिर कोई राजा यहां का शासक बन गया होगा और यह स्थान उस प्राचीन समय के मानचित्र पर अंकित हो गया होगा।'
'मैं बात कर रहा हूं ओसियां की। जोधपुर के पास बसा एक प्राचीन नगर जहां आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच निर्मित मंदिरों का एक पूरा समूह है। मंदिरों की कुल संख्या दो दर्जन के आसपास होगी।'
देशबन्धु में 29 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/10/blog-post_30.html


