ललित सुरजन की कलम से- मुक्तिबोध और परसाई
'मुझे महागुरु मुक्तिबोध में यह देखकर आत्मिक सुख मिला कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, रामकृष्ण श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की संभवतत्न पहली बार किसी ने सुध ली

'मुझे महागुरु मुक्तिबोध में यह देखकर आत्मिक सुख मिला कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, रामकृष्ण श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की संभवतत्न पहली बार किसी ने सुध ली। पाठक याद करें कि सोख्ता जी नागपुर से 'नया खून' शीर्षक विद्रोही तेवरों वाला साप्ताहिक प्रकाशित करते थे जिसमें मुक्तिबोध उनके सहयोगी थे। सोख्ता जी की कविताओं का एक संकलन 'कलामे सोख्ता के नाम से प्रकाशित भी हुआ था। उनके जैसे अक्खड़ शैली में बात करने वाले कवि कम ही होंगे।
मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि सोख्ताजी व अन्य पर लिखकर कांतिकुमार जैन ने हिन्दी भाषा के इतिहास की एक बड़ी कमी पूरी की है और इस तरह भाषा का कर्ज चुकाया है।
एक अध्याय मशरिकीजी पर भी है। उनकी मुक्तिबोध जी से कितनी घनिष्ठता थी, इस बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं। रामशंकर मिश्र ने यह काम सीधे-सीधे तो नहीं किया लेकिन वे भी रामानुजलाल श्रीवास्तव,पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', भवानी प्रसाद तिवारी आदि के कृतित्व से पाठकों का परिचय करवाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं।'
'कांतिकुमार जी और रामशंकर जी दोनों ने मुक्तिबोध जी और परसाई जी के निजी जीवन के ब्यौरे भी अपनी-अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं। ऐसा करने में कहीं-कहीं संभवत: स्मृतिभ्रम से ही, छोटी-मोटी चूकें हुई हैं, लेकिन कुल मिलाकर अपने इन प्रिय लेखकों के बारे में हमें प्रामाणिक जानकारियां उपलब्ध होती हैं। दोनों लेखकों ने अपने-अपने नायक के साथ गहरे आत्मीय संबंध होने के बावजूद अपनी वस्तुनिष्ठता सिद्ध की है। इस साल जब मुक्तिबोध जी के निधन को पचास साल पूरे होने आए हैं और परसाई जी की उन्नीसवीं पुण्यतिथि भी इसी माह पड़ रही है तब ये दोनों पुस्तकें हमारे लिए कुछ और ज्यादा मूल्यवान हो जाएंगी।'
(अक्षर पर्व अगस्त 2014 में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/08/blog-post_7.html


