ललित सुरजन की कलम से- मीडिया की नैतिकता
'एक समय राजनीतिक दल और प्रत्याशी मीडिया में अपने विज्ञापन खुलकर दे सकते थे और उसे चुनावी खर्च में नहीं जोड़ा जाता था

'एक समय राजनीतिक दल और प्रत्याशी मीडिया में अपने विज्ञापन खुलकर दे सकते थे और उसे चुनावी खर्च में नहीं जोड़ा जाता था। यह सबको पता है कि चुनावों को स्वच्छ बनाने के लिए जो भी नए-नए नियम कायदे बने हैं वे सब बेअसर सिध्द हो रहे हैं। क्योंकि इनमें व्यावहारिक पक्ष का ध्यान कहीं भी नहीं रखा गया है।
एक तरफ करोड़ों की संपत्ति के मालिक चुनाव लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा तय करने में वास्तविकता को झुठलाया जा रहा है। जब एक उम्मीदवार बैनर,पोस्टर, कार्यालय का संचालन, कार्यकर्ताओं के चाय-नाश्ता आदि मदों पर खर्च करता है तो प्रचार के प्रभावी साधन मीडिया को भी वह विज्ञापन दे, यह एक स्वाभाविक अपेक्षा होती है।'
'यह सर्वविदित है कि आज का मीडिया गहन पूंजी निवेश मांगता है। चाहे बहुरंगी छपाई वाली मशीन की आवश्यकता हो या चैनल चलाने की या पत्रकारों के वेतन की। मीडिया का विस्तार भी बहुत तेजी के साथ हुआ है। पहले जहां दो अखबार होते थे अब वहां बीस अखबार और बीस चैनल संचालित हो रहे हैं। इन्हें स्वाभाविक रूप से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है।
आम चुनाव के समय करीब-करीब दो माह तक आचार संहिता लागू होती है और शासकीय और अर्ध्दशासकीय विज्ञापनों का प्रवाह पूरी तरह सूख जाता है। ऐसे में चुनावी विज्ञापनों से भरपाई करने की कोशिश मीडिया करता है। उस पर भी जब रोक लगने लगी तो मीडिया ने नंबर दो में पैसे लेकर खबरें छापने की रीत चला दी।'
(14 जनवरी 2010 को देशबन्धु में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/05/blog-


