ललित सुरजन की कलम से- वंशवाद चिरजीवी हो!
'जहां तक कांग्रेस पार्टी के दिन लदने की बात है तो आज के माहौल में इस तरह की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक नहीं है

'जहां तक कांग्रेस पार्टी के दिन लदने की बात है तो आज के माहौल में इस तरह की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक नहीं है। यह तो दिख ही रहा है कि कांग्रेस का जनाधार सिमटा है और पार्टी के सामने नेतृत्व का संकट है।
लेकिन अगर जनतांत्रिक राजनीति में विपक्षी दल की कोई भूमिका है तो राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कांग्रेस के अलावा दूसरी कौन सी पार्टी है? समाजवादियों के बीच नए-नए समीकरण बन रहे हैं। पुराने गिले-शिकवे मिटाकर बड़े नेता हाथ भी मिलाकर रहे हैं, गले भी लग रहे हैं, लेकिन एक शरद यादव के अलावा कौन है, जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ रखता हो? वैसे भी हिन्दी प्रदेशों के बाहर समाजवादी पार्टियां फिलहाल कहां हंै? कुछ ऐसी ही स्थिति कम्युनिस्ट पार्टियों की भी है। इसलिए कांग्रेस की सत्ता से बेदखली से भले ही लोगों को खुशी हो, देश की राजनीतिक सेहत के लिए विपक्ष के रूप में आज भी उसकी प्रासंगिकता बरकरार है।'
'इन दो राज्यों के चुनावी नतीजों से जुड़े दो-तीन और बिन्दु हैं जिन्हें ध्यान में रखना उचित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं धुंआधार चुनावी सभाएं दोनों राज्यों में कीं। ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में इतनी दिलचस्पी ले। फिर भाजपा की रणनीति की बात भी सामने आती है। बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा ने शरद पवार की राकांपा के साथ कोई गुप्त समझौता कर लिया था। अगर यह सच है तो, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। दूसरी तरफ हरियाणा में भाजपा ने डेरा सच्चा सौदा से खुला समर्थन हासिल किया।
ज्ञातव्य है कि शिरोमणि अकाली दल और डेरा सच्चा सौदा के बीच भारी कटुता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों प्रदेशों में भाजपा ने अपने पूर्व सहयोगियों का साथ छोड़ दिया। यही नहीं, एक तरफ नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र के अखंड रहने की सिंह गर्जना की तो देवेंद्र फडऩवीस ने पृथक विदर्भ का मुद्दा उठाने में कोई संकोच नहीं किया। इन कलाबाजियों के क्या परिणाम होते हैं यह भविष्य बताएगा।'
(देशबन्धु में 23 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/10/blog-post_24.html


