ललित सुरजन की कलम से- इस्लाम बनाम आतंकवाद
'आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं

'आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं, लेकिन क्या वाकई इस्लाम में कट्टरता के तत्व स्थापना काल से मौजूद रहे हैं? हम इतिहास में जिन दुर्दम्य आक्रांताओं के बारे में पढ़ते हैं मसलन चंगेज खां, वह और उस जैसे अनेक इस्लाम के अनुयायी नहीं थे।
विश्व विजय का सपना लेकर निकला सिकंदर न यहूदी था, न मुसलमान, न ईसाई। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार इत्यादि भी इस्लाम को मानने वाले नहीं थे। तुर्की के राष्ट्रपिता कमाल अतातुर्क ने तो बीसवीं सदी के प्रारंभिक समय में खिलाफत (खलीफा का ओहदा और साम्राज्य)को चुनौती देकर एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की थी। इजिप्त के नासिर और इंडोनेशिया के सुकार्णों ने भी धर्मनिरपेक्षता की नींव पर अपने नवस्वतंत्र देशों को खड़ा करने का उपक्रम किया था।'
'यह पूछना चाहिए कि सुकार्णो को अपदस्थ कर सुहार्तो को लाने में किसका हाथ था और नासिर बेहतर थे या उनके बाद बने राष्ट्रपति अनवर सादात। पश्चिम एशिया के अनेक देशों में से ऐसे अनेक सत्ताधीश हुए जो अपने को बाथिस्ट कहते थे और जो धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल दूर थे। इराक में बाथिस्ट पार्टी को हटाकर सद्दाम हुसैन भले ही सत्ता में आए हों, लेकिन उनके विदेश मंत्री ईसाई थे और उनके इराक में धार्मिक असहिष्णुता नहीं है।
यही बात सीरिया के बारे में कही जा सकती है। लेबनान में तो संवैधानिक व्यवस्था के तहत ईसाई और इस्लामी दोनों बारी-बारी से राज करते रहे हैं। हम अपने पड़ोस में बंगलादेश का उदाहरण ले सकते हैं। अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने बंगलादेश में जनतांत्रिक शक्तियों के उभार पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा वे तानाशाह याह्या खान का समर्थन करते रहे।'
(अक्षर पर्व दिसंबर 2015 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/12/blog-post_13.html


