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ललित सुरजन की कलम से- क्या अमेरिका भारत का दोस्त है?

भारत के स्वाधीनता संग्राम के पन्ने पलटने से ज्ञात होता है कि अमेरिका में बड़ी संख्या में ऐसे उदारवादी राजनीतिज्ञ एवं बुद्धिजीवी थे

ललित सुरजन की कलम से- क्या अमेरिका भारत का दोस्त है?
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भारत के स्वाधीनता संग्राम के पन्ने पलटने से ज्ञात होता है कि अमेरिका में बड़ी संख्या में ऐसे उदारवादी राजनीतिज्ञ एवं बुद्धिजीवी थे, जो भारत के साथ सहानुभूति रखते थे और चाहते थे कि उसे शीघ्रातिशीघ्र परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति मिले। इनमें अमेरिका के महान राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट भी थे, जो इस बारे में ब्रिटिश सरकार पर अपनी ओर से दबाव डालते रहे। महात्मा गांधी को जहां अश्वेत अमेरिकी नेता बुकर टी वाशिंगटन ने गहरे रूप से प्रभावित किया था, वहीं मार्टिन लूथर किंग (जूनि) का पूरा जीवन ही गांधीजी से प्रेरित था।

अमर अश्वेत गायक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता पॉल रॉब्सन पंडित नेहरू के आत्मीय मित्र थे तथा जब विजयलक्ष्मी पंडित की बेटियां अमेरिका पढ़ने के लिए गईं तो श्रीमती रॉब्सन को पंडितजी ने उनका अभिभावक नियुक्त किया, क्योंकि तब रॉब्सन जेल में थे। भारत में अमेरिकी राजदूत रहे सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गॉलब्रेथ भी नेहरू जी के व्यक्तिगत मित्र थे। मुझे यह भी याद आता है कि एक अन्य अमेरिकी राजदूत चेस्टर बोल्स की बेटी सिंथिया ने ''भारत मेरा घर'' नाम से अपने संस्मरणों की पुस्तक प्रकाशित की थी।

ऐसे उदाहरणों से एकबारगी लगता है कि भारत और अमेरिका के बीच संबंध बेहद सौहार्द्रपूर्ण होना चाहिए लेकिन वस्तुस्थिति इस सदेच्छा के एकदम विपरीत है। बीसवीं सदी में अमेरिका का उदय एक महाशक्ति के रूप में हो रहा था।

द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होते न होते उसने यह स्थान मुक्कमल तौर पर हासिल कर लिया था, जबकि ब्रिटिश साम्राज्य बिखरने की कगार पर पहुंच चुका था। यही समय था जब अमेरिका को लगा कि सारे विश्व को उसके सामने सिर

झुकाना चाहिए। इसमें अड़चन इस बात की थी कि सोवियत संघ दूसरी महाशक्ति के रूप में सामने था तथा आगे-पीछे चीन के उभरने की संभावनाएं भी दिखने लगी थीं। इस नाते अमेरिका के लिए यह जरूरी था कि वह रूस, चीन व साम्यवाद को आगे बढ़ने से रोके ही नहीं, बल्कि उन्हें तोड़ कर रख दे।

देशबंधु में 02 जनवरी 2014 को प्रकाशित

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