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ललित सुरजन की कलम से- इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता

'भारत उपमहाद्वीप में बहुसंख्यक जनता के लिए गांधी महात्मा थे और हैं। उनका हर शब्द एक आदेश था और बिना कोई सवाल उठाए उनके हर इंगित का अनुसरण कर हर व्यक्ति अपने को धन्य समझता था

ललित सुरजन की कलम से- इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता
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'भारत उपमहाद्वीप में बहुसंख्यक जनता के लिए गांधी महात्मा थे और हैं। उनका हर शब्द एक आदेश था और बिना कोई सवाल उठाए उनके हर इंगित का अनुसरण कर हर व्यक्ति अपने को धन्य समझता था। अपनी मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद गांधी आज एक और ऊंचे आसन पर विराजित हैं तथा उन्हें लगभग भगवान का दर्जा दे दिया गया है।

यही नहीं, उनके जीवनकाल में भी दुनिया के अन्य मुल्कों में उनके विचार और कर्म से प्रभावित लोगों की कोई कमी नहीं थी। आज यह संख्या कई गुना बढ़ गई है। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' आने के बाद तो दुनिया का ऐसा कौन सा कोना है जहां गांधी के नए अनुयायी न बने हों! यह भी एक विचित्र तथ्य है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों में दीक्षित और अनुप्राणित व्यक्ति ने गांधी की हत्या की थी उसी संघ ने गांधी को अपने आराध्यों की सूची में शामिल करने में बहुत देर नहीं लगाई। संघ के विचारों में इस बीच कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, तब यह अनुमान लगाना कठिन है कि संघ गांधी के बारे में वास्तव में क्या सोचता है!'

'गांधी के चरित्र का एक अन्य पहलू यह भी है कि वे एक महान लेखक व महान पत्रकार थे तथा दुनिया के तमाम विषयों पर वे अपने विचार विभिन्न माध्यमों से नियमित रूप से व्यक्त करते थे। उन्होंने जितना कुछ लिखा उतना जवाहरलाल नेहरू को छोड़कर विश्व के किसी अन्य नेता ने शायद नहीं लिखा। इसके चलते एक सुभीता, बहाना और अवसर उन बहुत से टीकाकारों अथवा लेखकों को मिल गया है जो अपने निजी विचारों की पुष्टि में गांधी दर्शन से बिना किसी संदर्भ के सामग्री उठाना चाहते हैं। इसे आप चाहे तो बौध्दिक बेईमानी कहें या बौध्दिक चतुराई।

मिसाल के तौर पर ऐसे विचारकों की कमी नहीं है जो हर तरह से प्रमाणित करना चाहते हैं कि 1909 में प्रकाशित 'हिन्द स्वराज' गांधी के विचारों का उत्स व चरमसीमा है, गोया इसके बाद गांधी ने न तो कुछ नया लिखा और न उनके विचारों का ही विकास हुआ। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व मैं एक छोटी सी पुस्तक पाकर हतप्रभ रह गया, जिसमें ईसाईयत पर गांधी के विचारों को मनमाने ढंग से संकलित किया गया था। 1999 में ओडिशा में काम कर रहे आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस की बर्बर हत्या, उग्र हिन्दूवाद से जुड़े कुछ लोगों ने कर दी थी। उसके कुछ हफ्ते बाद ही इस पुस्तक का प्रकाशन मानो उक्त हत्याकांड को जायज ठहराने का प्रयत्न था।'

(इंदौर में 'गांधी - निशस्त्रीकरण और विकास' पर 4, 5, 6 अक्टूबर 2013 को संपन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत वक्तव्य)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/10/blog-post_25.html


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