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ललित सुरजन की कलम से- बौने टिड्डी बनकर छा गए

देश में जो हजारों पुरस्कार बांटे जाते हैं उनमें भी यही बौध्दिक कंगाली परिलक्षित होती है

ललित सुरजन की कलम से- बौने टिड्डी बनकर छा गए
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'देश में जो हजारों पुरस्कार बांटे जाते हैं उनमें भी यही बौध्दिक कंगाली परिलक्षित होती है। ऐसी सैकड़ों गैर-सरकारी संस्थाएं हैं जिनकी स्थापना सिर्फ फर्जी अलंकरण देने के लिए ही की गई है। इन संस्थाओं के सूत्रधार किसी भूतपूर्व रायपाल, भूतपूर्व राजदूत या ऐसे किसी व्यक्ति को अपना अध्यक्ष बना लेते हैं और फिर उसके नाम का उपयोग कर पुरस्कार अभिलाषी लोग से सहयोग राशि इकठ्ठी कर उसी से उनको कोई आकर्षक नाम वाला पुरस्कार दे देते हैं।

जिसका जूता उसी का सिर'। जो सूत्रधार हैं उसके लिए तो यह कमाई का जरिया है, लेकिन जो महानुभाव उसे अपने नाम का इस्तेमाल करने देते हैं उनकी बुध्दि के बारे में क्या कहा जाए! अपने जीवन में बड़े-बड़े पदों पर रह चुके लोग यदि इस तरह के फर्जीवाड़े में शामिल होते हैं तो वे अपनी अपूर्ण, तुच्छ आकांक्षा को ही प्रदर्शित करते हैं। हमारे साहित्यकार और कलाकार तो पुरस्कार और प्रसिध्दि के लिए जैसे पागल हुए जाते हैं। उनका सारा समय इसी जोड़-तोड़ में लगा रहता है कि कब कौन बुलाकर माला पहना दें और बन सके तो एकाध लिफाफा भी थमा दे।

कुछेक संस्थाएं इसी उद्देश्य से स्थापित होती हैं कि उसके माध्यम से रायपाल, मुख्यमंत्री या ऐसे प्रभावशाली लोगों में मेलजोल बढ़ाया जा सके। बहुत से लोग इन फर्जी संस्थाओं के कार्यकमों में शामिल भी इसीलिए होते हैं कि मंत्री-मुख्यमंत्री उनके ऊपर एक अनुग्रह भरी दृष्टि डाल दें। अभी पच्चीस-तीस साल पहले तक संत कवि कुंभनदास को साक्षी रखकर लेखक कहता था- संतन को कहा सीकरी सौ काम, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि सारे के सारे संत न सिर्फ सीकरी में बस गए हैं, बल्कि राजसत्ता की गोद में बैठने के लिए मचल रहे हैं और एक दूसरे से झगड़ रहे हैं।'

(देशबंधु में 11 अप्रैल 2013 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/04/blog-post_11.html


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