ललित सुरजन की कलम से- 21 वीं सदी में जनतंत्र!
'पहले दिन परिसंवाद की शुरूआत नागपुर के प्रोफेसर युगल रायलु के बीच वक्तव्य के साथ हुई

'पहले दिन परिसंवाद की शुरूआत नागपुर के प्रोफेसर युगल रायलु के बीच वक्तव्य के साथ हुई। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय जनता के लिए जनतंत्र सिर्फ एक राजनैतिक व्यवस्था ही नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि भारत व्यापक विविधताओं का देश है तथा इस विविधता का संरक्षण जनतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है। किसी भी तरह की तानाशाही अथवा अधिनायकवाद में विविधता का निषेध ही होता है।
प्रोफेसर रायलु ने इस खतरे की ओर आगाह किया कि देश में जनतांत्रिक प्रक्रिया को भीतर ही भीतर नष्ट करने का महीन षड़यंत्र चल रहा है। एक तरफ अतिदक्षिणपंथी हैं जो भारत के संविधान को बदल देना चाहते हैं, तो दूसरी ओर अतिवामपंथी हैं जो संविधान में विश्वास ही नहीं रखते। इन दोनों से ही सावधान रहने की आवश्यकता है। एक अन्य वक्ता डॉ. अजय पटनायक ने इस बात पर चिंता जताई कि जनता और मीडिया में कथित विकास को लेकर तो बहसें हो रही हैं, किंतु गैरबराबरी और नाइंसाफी को लेकर जिस गंभीरता के साथ बहस होना चाहिए वह दूर-दूर तक नहीं दिखती। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता हमारे जनतंत्र का प्रमुख आधार है और इसे बचाना बेहद जरूरी है।'
'ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष अनिल राजिमवाले ने इस अवसर पर एक विस्तृत आधार पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि अंग्रेजी राज के दौरान भी हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने किस तरह से समाज के बीच जनतांत्रिक चेतना फैलाने का काम किया।
उन्होंने विभिन्न कालखंडों का जिक्र करते हुए 1937 के आम चुनावों की चर्चा की जब ग्यारह में से नौ प्रांतों में कांग्रेस ने भूमिहीनों व गरीब जनता के भारी समर्थन से विजय हासिल की। इसके बाद उन्होंने ध्यान आकर्षित किया कि भारत के पड़ोसी देशों में जनतंत्र को जडें ज़माने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला जबकि हमें संविधान सभा के माध्यम से ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था प्राप्त हुई जो अब तक चली आ रही है।'
(देशबन्धु में 06 फरवरी 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/02/21.html


