ललित सुरजन की कलम से- प्रायोजित पत्रकारिता की चुनौतियां- 3
'अब पत्रकारिता की नई पीढ़ी का मूल्यबोध पूरी तरह बदल गया है। आपको ऐसे उदाहरण पूरे देश में मिल जाएंगे

'अब पत्रकारिता की नई पीढ़ी का मूल्यबोध पूरी तरह बदल गया है। आपको ऐसे उदाहरण पूरे देश में मिल जाएंगे कि एक ओर जहां अखबार मालिक कारखाने खोल रहे हैं, जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं या फिर अफीम की तस्करी कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर पत्रकार बस, ट्रक और टैक्सियाँ चला रहे हैं, पेट्रोल पंप के मालिक हैं, दो-तीन मकान किराए पर उठा रखे हैं, जमीन दलालों के साथ बेनामी भागीदारी कर रहे हैं या फिर रेस्तराँ और क्लब चला रहे हैं।
अगर पहले भी यह सब होता था तो आज कई गुना बढ़कर हो रहा है। इसीलिए अब मीडिया की विश्वसनीयता पर बार-बार प्रश्नचिन्ह लग रहा है। आम जनता समझती है कि शराब की एक बोतल में पत्रकार को खरीदा जा सकता है। धन्ना सेठों की निगाह में उनकी कीमत कुछ ज्यादा होती है। पुलिस उन्हें मुखबिरी के लिए इस्तेमाल करती है। अफसरों के लिए वे मुसाहिब होते हैं और सत्ता में बैठे लोग उन्हें अपनी देहरी पर जंजीर में बांधकर रखना चाहते हैं।'
'यह सब इसलिए है कि जैसा समाज है वैसे ही अखबार हैं। जब आप अखबार खरीदने के पहले रद्दी बेचने पर उसका कितना पैसा मिलेगा इसका हिसाब लगाते हैं, बाल्टी, सूटकेस, कुर्सी और सॉस की बोतल मुफ्त मिलने के लालच में अखबार के ग्राहक बनते हैं तो फिर आपको शिकायत करने का हक ही कहां रह जाता है?'
(16 दिसंबर 2010 को देशबन्धु में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/05/3_8207.html


