ललित सुरजन की कलम से- पूंजीवादी जनतंत्र और 'आप'
'आर्थिक नीतियों के अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि 1980 में इंदिरा गांधी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में आर्थिक उदारवाद के नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी, यद्यपि वह बहुत प्रकट नहीं थी

'आर्थिक नीतियों के अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि 1980 में इंदिरा गांधी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में आर्थिक उदारवाद के नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी, यद्यपि वह बहुत प्रकट नहीं थी।
राजीव गांधी, फिर वी.पी. सिंह के संक्षिप्त कार्यकाल में देश में वैश्विक पूंजी हितों की पकड़ कुछ और मजबूत हुई। तदन्तर पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री बनने और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा वित्तमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ एल.पी.जी. याने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का जो दौर प्रारंभ हुआ वह लगातार मजबूत होते गया है।
मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के नाते अपने दूसरे कार्यकाल में इस प्रक्रिया को अपेक्षानुरूप गति नहीं दे पाए- यह आलोचना तो पूंजीवाद समर्थक हर आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण कर ही रहा है। ऐसी स्थिति में पूंजी हितों की रक्षा करने के लिए एक नए नेतृृत्व की तलाश शुरु हुई और नरेन्द्र मोदी देखते ही देखते राष्ट्रीय तो क्या बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर छा गए।'
(देशबन्धु में 19 फरवरी 2015 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/02/blog-post_18.html


