ललित सुरजन की कलम से - आप किसे वोट देंगे?
'किसी दल के सामने एक असमंजस की स्थिति भी होती है कि चुनाव के समय वह पार्टी की आपसी कलह को कैसे शांत करे

'किसी दल के सामने एक असमंजस की स्थिति भी होती है कि चुनाव के समय वह पार्टी की आपसी कलह को कैसे शांत करे। यह परेशानी शासन करने वाली पार्टी के सामने विपक्ष के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है।
सत्ता का स्वाद भला कौन नहीं चखना चाहता? पार्टी नेतृत्व अपनी ओर से संतुलन साधने की कोशिश अवश्य करता है; बाज वक्त अनुशासन का चाबुक भी लहराना पड़ता है, फिर भी संतुष्टों से कहीं बड़ी संख्या असंतुष्टों की होती है। कोई मुख्यमंत्री ही बनना चाहता है तो कोई किसी न किसी तरकीब से मलाई के छींके को हथिया लेना चाहता है। यह स्थिति आज से नहीं, बल्कि साठ साल से चली आ रही है, किंतु आज के हालात इस सीमा तक अलग हैं कि पहिले की तरह अब कोई नेता इतना सर्वमान्य नहीं होता कि उसका आदर कर बाकी सब चुप बैठ जाएं।
इसके साथ-साथ यह सामान्य अनुभव है कि सत्ताधारी पार्टी के क्या नेता और क्या कार्यकर्ता, सब धीरे-धीरे आत्ममुग्धता व अहंकार का शिकार होने लगते हैं। वे मान बैठते हैं कि जनता की गरज़ थी जो उसने उन्हें चुना।
अहंकार ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वे जनता से दूर होने लगते हैं। मैं प्रदेशों के राजनैतिक इतिहास पर नज़र डालता हूं तो देखता हूं कि पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु और केरल में सी.के. अच्युत मेनन के अपवादों को छोड़कर आज तक किसी अन्य मुख्यमंत्री ने स्वेच्छा से पदत्याग नहीं किया।'
(देशबन्धु में 11 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2018/10/blog-post_10.html


