ललित सुरजन की कलम से- चुनावों के बाद क्या?-2
'अखिलेश यादव देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पांच साल के एक पूरे कार्यकाल तक रहे हैं

'अखिलेश यादव देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पांच साल के एक पूरे कार्यकाल तक रहे हैं। उन्होंने इस अवधि में पार्टीगत सीमाओं के भीतर रहकर भी बेहतर काम करने का प्रयत्न किया है। यह किसी से छुपा नहीं है कि उन पर पिता, चाचा और अन्य वरिष्ठों का बहुत अधिक दबाव रहा, लेकिन वे उससे लगातार छुटकारा पाने में जुटे रहे, जिसकी परिणति शायद परिवार टूटने में ही होती, किंतु वैसी अप्रिय स्थिति उन्होंने उत्पन्न नहीं होने दी। इन चुनावों के दौरान पत्नी सांसद डिंपल का भी उन्हें समझदारी से भरपूर राजनीतिक सहयोग मिला। अखिलेश ने चुनाव अभियान के लंबे दौर में शालीनता, शिष्टता व धीरज कभी नहीं खोया, कभी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं किया, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं की। स्वयं प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा भी ऐसा संतुलन नहीं साध सकी।'
'राहुल और अखिलेश दोनों पर आरोप है कि वे वंशवाद की राजनीति कर रहे हैं। इसका परीक्षण कर लिया जाए। मुलायम सिंह अपने बलबूते राजनीति में आगे बढ़े। उन्होंने अखिलेश का राजतिलक अवश्य किया, किंतु आगे की राह तो इस युवा ने स्वयं गढ़ी। मुलायम सिंह और अखिलेश की कार्यशैली में जो फर्क है, वह बिल्कुल स्पष्ट है।
अखिलेश के सामने इसके आगे जो राह आएगी, वे स्वयं ही उसे बनाएंगे। वह वंशवाद की नहीं, अपनी सूझबूझ से बनाई गई होगी। राहुल के बारे में यह बात और अधिक सच है। जिस पार्टी को तमाम प्रेक्षकों ने खारिज कर दिया हो, उसमें कैसा वंशवाद? राहुल स्वयं अपनी राह बनाने में लगे हुए हैं। सच तो यह है कि संजय गांधी और राजीव गांधी ने ही विरासत में विशेषाधिकार पाए, बाकी को तो संघर्षों का सामना करके ही जीत हासिल हुई। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी सेंत-मेंत में नहीं मिली, उन्हें मोरारजी देसाई और अन्य दिग्गजों से जूझना पड़ा था।
पी.वी. नरसिम्हाराव ने तो सोनिया गांधी को दरकिनार कर ही दिया था। यह उनकी हिकमत थी कि उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद हासिल किया और फिर लगातार दो चुनाव जीते। फिर भी न वे स्वयं प्रधानमंत्री बनीं और न राहुल गांधी ने सरकार में कोई पद लिया। आज राहुल विपक्ष से ही नहीं, पार्टी के भीतर भी कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।'
(देशबन्धु में 09 मार्च 2017 को प्रकाशित)
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