ललित सुरजन की कलम से- पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल
'आपातकाल के दौरान दिल्ली और अनेक प्रदेशों में प्रेस और पत्रकारों के साथ सरकार ने जो ब

'आपातकाल के दौरान दिल्ली और अनेक प्रदेशों में प्रेस और पत्रकारों के साथ सरकार ने जो बर्ताव किया उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल समाप्त होने के बाद लालकृष्ण आडवानी ने प्रेस पर जो टीका की थी, वह भी सबको याद होगी।
1977 के बाद पत्रकारिता के स्वरूप में एक के बाद एक बदलाव आना शुरू हो गए। अनेक मामलों में प्रेस को पुनर्प्राप्त स्वतंत्रता देखते ही देखते उच्छृंखलता में बदल गई। दूसरी ओर प्रेस ने अपना ध्यान राजनीति से इतर विषयों पर भी केन्द्रित किया। तीसरा परिवर्तन टेक्नालॉजी के विकास के साथ आया। कुल मिलाकर यह समय देश में पत्रकारिता बहुत अच्छा न सही, अच्छा तो अवश्य था।'
'1991 में कथित उदारीकरण के साथ राजनीति और अर्थनीति में जो युगांतरकारी परिवर्तन आया, प्रेस उससे अछूता न रहा। प्रेस संज्ञा का स्थान जल्दी ही मीडिया ने ले लिया। पुराने समय के जूट प्रेस में संपादकों और पत्रकारों का जो कुछ भी सम्मान था वह नए मीडिया मालिकों के निजाम में तिरोहित हो गया। मुनाफाखोर मीडिया मालिक और आत्मकेन्द्रित राजनेताओं के बीच एक नया गठबंधन हो गया जिसके बाद पत्रकारिता में न तो स्वतंत्रता की गुंजाइश रही, न निष्पक्षता की, और निर्भीकतापूर्वक काम करना तो अपराध ही बन गया। हमने ऐसे-ऐसे मुख्यमंत्री और अन्य सत्ताधीश देखे जिन्हें अपनी रंचमात्र आलोचना भी बर्दाश्त नहीं थी। ऐसे में दो ही रास्ते थे- या तो समर्पण कर दो या फिर दंड झेलने के लिए तैयार रहो।
केन्द्र और राज्य में जहां अलग-अलग दलों की सरकार थी वहां स्वयं को बचाने की क्षीण आशा थी; लेकिन जहां ऐसा नहीं था वहां सिर पर तलवार ही लटक रही थी। हमने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में आंतरिक अशांति के दौर में देखा था कि पत्रकार बिरादरी को कितनी भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को समाप्त करने के नाम पर सलवा जुड़ूम नाम से जो सरकार समर्थित मुहिम चलाई गई इसके बाद यहां भी ऐसी ही स्थिति बनने लगी।'
(देशबंधु में 17 जनवरी 2019 को प्रकाशित)
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