ललित सुरजन की कलम से- 'नक्सली हिंसा : लोकतंत्र पर हमला'
'नक्सली भले ही शोषण से मुक्ति की आड में अपनी हिंसक कार्रवाई को जायज ठहराने का कितना भी प्रयत्न क्यों न करें

'नक्सली भले ही शोषण से मुक्ति की आड में अपनी हिंसक कार्रवाई को जायज ठहराने का कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसी हिंसा के लिए लोकतंत्र में न तो कोई जगह है और न वह किसी तरह से जायज है। वे जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें उनकी जीत कभी नहीं होगी, लेकिन इसके चलते देश में जो अशांति और अस्थिरता का वातावरण बन रहा है वह लोकतंत्र के हित में नहीं है।
नक्सलियों से एक सीधा सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि जनता का शोषण क्या सिर्फ आदिवासी अंचलों में ही हो रहा है?
आदिवासियों के अलावा देश में किसानों पर, मजदूरों पर, हाशिए पर धकेल दिए लोगों पर जो अत्याचार हो रहे हैं, उनका जिस तरह से शोषण हो रहा है क्या वह उन्हें दिखाई नहीं देता? फिर उनकी लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी और कौन लड़ेगा?'
'यह हमें दिख रहा है कि नक्सली लोकतंत्र के शत्रु हैं, लेकिन आज यह विचार करना भी जरूरी है कि जिन परिस्थितियों के चलते नक्सलियों को बस्तर व अन्य आदिवासी क्षेत्रों में अपने पैर जमाने की जगह मिली, क्या वैसी परिस्थितियां देश के गैर आदिवासी इलाकों में बिल्कुल भी नहीं है? दरअसल इस प्रश्न के दो हिस्से हैं। हमने जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना है एक तो उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में व्याप्त विषम परिस्थितियों के निराकरण के लिए उन्होंने क्या प्रयत्न किए व इसमें कहां तक सफल हुए? दूसरे देश के अन्य भागों में ऐसी स्थितियां न बनें और अगर कहीं बन रही हैं तो उन्हें तत्काल सुधारने के लिए क्या कदम उठाए गए?'
(देशबन्धु में 31 मई 2013 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/05/blog-post_30.html


