ललित सुरजन की कलम से - मोदी यूँ ही चुप नहीं हैं
'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी या अनिर्णय को समझने के लिए हमें शायद उन दिनों को ध्यान में रखना चाहिए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे

'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी या अनिर्णय को समझने के लिए हमें शायद उन दिनों को ध्यान में रखना चाहिए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अपने बारह साल के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने कब किसकी बात मानी?
क्या यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म का पालन करने की सीख को भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया था?
क्या यह आईने की तरह साफ नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने जनमत की कभी परवाह नहीं की? श्री मोदी की आलोचना चाहे निजी जीवन को लेकर की गई हो, चाहे मुख्यमंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों पर, उन्होंने हर अवसर पर मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा है। आज प्रधानमंत्री के रूप में भी संभवत: वे इस पुराने आजमाए गए नुस्खे का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।
देशव्यापी पैमाने पर नुस्खा कितना कारगर हो पाता है, यह कहना कठिन है, किंतु आज की सोच शायद यही है कि जो चिल्ला रहे हैं उन्हें चिल्लाने दो, एक दिन थककर सब अपने आप चुप हो जाएंगे।
श्री मोदी को शायद यह विश्वास भी है कि वे जिस शीर्ष पर हैं, वहां उनके सामने कोई चुनौती, कोई खतरा नहीं है।'
(देशबन्धु में 02 जुलाई 2015 को प्रकाशित)
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