ललित सुरजन की कलम से- 2014 के आखिरी चुनावी नतीजे
झारखंड तथा जम्मू-काश्मीर इन दोनों प्रदेशों में सत्तारूढ़ गठबंधन को जिसमें कांग्रेस शामिल थी, हार का मुख देखना पड़ा है

'झारखंड तथा जम्मू-काश्मीर इन दोनों प्रदेशों में सत्तारूढ़ गठबंधन को जिसमें कांग्रेस शामिल थी, हार का मुख देखना पड़ा है। इसमें 'एंटी-इंकमबैंसी' का रोल तो था ही, यह भी स्मरणीय है कि इन दलों ने अपना गठबंधन विसर्जित कर पृथक रूप से चुनाव लड़ा था। यह दिलचस्प तथ्य है कि झारखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन झामुमो की तुलना में निराशाजनक रहा है, जबकि काश्मीर में वह नेशनल कांफ्रेंस के मुकाबले लगभग बराबर कामयाबी हासिल कर सकी है। इससे एक तो यह पता चलता है कि कांग्रेस के पास दोनों प्रदेशों में नेतृत्व का अभाव है।
काश्मीर में भी गुलाम नबी आज़ाद के बाद कांग्रेस का कोई दूसरा नेता दिखाई नहीं देता। दूसरे, झारखंड में विदा लेते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मतदाताओं में अपने प्रति विश्वास जगाने में किसी हद तक सफल हो सके हैं जबकि काश्मीर में उमर अब्दुल्ला को अब अपनी गलतियों पर सोचने के लिए मतदाताओं ने लंबा मौका दे दिया है।'
'इन नतीजों के आने के बाद झारखंड में पहला प्रश्न यह है कि भाजपा क्या किसी गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाएगी। ऐसा हुआ तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी यह अभी समझना मुश्किल है। जम्मू कश्मीर में मुफ्ती परिवार की पार्टी पीडीपी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। उसे सरकार बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी के साथ तालमेल करने की आवश्यकता होगी।
भाजपा पर मुग्ध मीडिया ने अभी से पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वकालत शुरु कर दी है। अगर ऐसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। किन्तु पीडीपी के सामने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का विकल्प भी खुला है। अगर पीडीपी भाजपा के साथ जाती है तो आने वाले समय में संभव है कि जम्मू और लद्दाख नए प्रदेश बना दिए जाएं। इस विचार को संघ परिवार के भाष्यकार समय-समय पर व्यक्त करते रहे हैं।'
(देशबन्धु सम्पादकीय 24 दिसंबर 2014)
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