ललित सुरजन की कलम से- एफडीआई : विरोध का पाखंड
'हम याद करना चाहेंगे कि पिछले बीस सालों में शायद ही कोई मुख्यमंत्री ऐसा हुआ हो, जिसने विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करने के नाम पर विदेश यात्रा न की हो

'हम याद करना चाहेंगे कि पिछले बीस सालों में शायद ही कोई मुख्यमंत्री ऐसा हुआ हो, जिसने विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करने के नाम पर विदेश यात्रा न की हो। जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर भारत आए तो वामपंथी सरकार ने कलकत्ता की सड़कों से फेरीवालों और गुमटीवालों को रातोंरात हटा दिया था। कांग्रेस और भाजपा के तमाम मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के विकास के लिए विदेशी पूंजी निवेश का झुनझुना बजाते रहे हैं। सोचने की बात है कि नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा का इतना ढिंढोरा क्यों पीटा गया और ब्रिटिश राजदूत के गुजरात प्रवास पर भाजपा ने इतनी खुशियां क्यों जाहिर कीं।'
'ऐसा भी क्यों है कि बिल गेट्स और वॉरेन बफेट भारतीय कारपोरेट जगत की आँखों के सितारे बने हुए हैं? ऐसा भी क्यों है कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में रोजगारोन्मुख पाठयक्रम खोलने पर इतना जोर दिया जा रहा है? एमबीए की इतनी मांग क्यों हो रही है और जब बच्चे एमबीए कर लेंगे तो उन्हें नौकरी कहां मिलेगी? क्या उन्हें इन्हीं सुपर बाजारों में नौकरी करने के लिए तैयार नहीं किया जा रहा है?
आज के भारतीय युवाओं के सामने इंदिरा नुई और विक्रम पंडित आदि को रोल मॉडल बनाकर पेश किया जाता है। ऐसे में एफडीआई का विरोध क्या एक पाखंड बन कर नहीं रह जाता? इस तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी गौर करना चाहिए। दलित समाजचिंतक चन्द्रभान प्रसाद और मिलिंद कांबले इत्यादि वालमार्ट आदि के आगमन का उत्साहपूर्वक स्वागत कर रहे हैं। उनका मानना है कि इससे दलित युवाओं को बिना भेदभाव के रोजगार मिलेगा और जातिप्रथा टूटने में मदद मिलेगी।'
(देशबन्धु में 13 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/12/blog-post_18.html


