ललित सुरजन की कलम से- योजना आयोग का अंत?
'योजना आयोग को समाप्त करने का निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं होकर लिया हो या कथित सलाहकारों से मशविरा करने के बाद, इसमें अनावश्यक जल्दबाजी नज़र आती है

'योजना आयोग को समाप्त करने का निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं होकर लिया हो या कथित सलाहकारों से मशविरा करने के बाद, इसमें अनावश्यक जल्दबाजी नज़र आती है। शंका होती है कि यह निर्णय श्री मोदी ने अपने कारपोरेट समर्थकों की खुशी के लिए लिया है! यह हम जानते हैं कि देश की आर्थिक नीतियां तय करने में 1991 याने पी.वी. नरसिम्हाराव के काल से कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी लगातार चली आई है और समय के साथ बढ़ती गई है।
कांग्रेस और यूपीए के सरकारों के दौरान भी ऐसे शक्तिसंपन्न पैनल आदि बनाए गए जिसमें कारपोरेट प्रभुओं को सम्मान के साथ जगह दी गई। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह ने राज्य योजना मंडल में अंबानी समूह के किसी डायरेक्टर को मनोनीत किया था, ऐसा मुझे याद आता है। जिस तरह से राज्य सभा में पूंजीपति सदस्यों की संख्या जिस तरह लगातार बढ़ी है, वह भी इस प्रवृत्ति का उदाहरण है।'
'कहने का आशय यह है कि कारपोरेट घराने नहीं चाहेंगे कि सरकार योजनाएं बनाएं। चूंकि सरकार जनता के वोटों से चुनी जाकर बनती है, इसलिए यह उसकी मजबूरी है कि वह दिखावे के लिए ही सही, जनता के हित व कल्याण की बात करे।
योजना आयोग या योजना मण्डल नीतियां बनाएंगे तो उनमें जनहित के मुद्दों को प्रमुखता के साथ उठाया जाएगा। यही स्थिति कारपोरेट जगत को नागवार गुजर रही है। उसे अपने खेलने के लिए खुला मैदान चाहिए जहां किसी भी तरह का प्रतिबंध न हो। वह जो अकूत कमाई करे उसमें से रिस-रिस कर नीचे तक जितना पहुंच जाए, जनता उतने में खुश रहे और खैर मनाए। योजना आयोग अगर समाप्त हो जाए, तो फिर कहना ही क्या है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।'
(देशबन्धु में 28 अगस्त 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/08/blog-post_28.html


