ललित सुरजन की कलम से- पंचायती राज में बाधक अभिजात सोच
'केन्द्र सरकार का संपूर्ण साक्षरता अभियान ताईद करता है कि जो लोग स्कूल नहीं गए हैं वे अन्य तरह से शिक्षित हैं

'केन्द्र सरकार का संपूर्ण साक्षरता अभियान ताईद करता है कि जो लोग स्कूल नहीं गए हैं वे अन्य तरह से शिक्षित हैं। एक किसान फसल, बीज, मिट्टी, मौसम के बारे में जितना जानता है वह उसका विशिष्ट ज्ञान है।
यही बात उन तमाम लोगों पर लागू होती है जो निरक्षर होने के बावजूद अपने-अपने पेशे में हुनरमंद हैं। ऐसे लोगों के लिए ही राष्ट्रीय साक्षरता अभियान ने समतुल्यता परीक्षा की व्यवस्था की है। मोटे तौर पर इसके तहत अपने हस्ताक्षर कर पाने वाली एक किसान औरत पांचवीं, आठवीं या बारहवीं के बराबर शिक्षित मानी जा सकती है।
क्या राज्य सरकार ने इस बात को ध्यान में रखा है? दूसरी बात, जब आप पंचायत प्रतिनिधि के लिए न्यूनतम शिक्षा की शर्त रखते हैं तो यही शर्त उन लोगों के लिए क्यों नहीं लागू होती जो सांसद और विधायक हैं? एक निरक्षर विधायक पंच बनने के लिए साक्षरता की शर्त किस नैतिक अधिकार से लगा सकता है?'
'दरअसल पंचायती राज के प्रति हमारी सरकारें गंभीर नहीं हैं। 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राज्य सरकारों को पंचायतों के कामकाज में हस्तक्षेप करने की बड़ी छूट दे दी गई है।
इसके चलते पंचायती राज व्यवस्था राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हो गई है। इसलिए कभी मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार दो बच्चों से ज्यादा होने पर चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगा देती है तो कभी राजस्थान की भाजपा सरकार ऐसा निर्णय ले लेती है।
सांसद और विधायक भी पंचों-सरपंचों को किसी गिनती में नहीं रखते। यह एक बड़ी विसंगति है। हम मानते हैं कि अगर पंचगण शिक्षित हों तो वह बेहतर है, लेकिन जब हम देखते हैं कि हमारे द्वारा चुनकर भेजे गए लोग शिक्षित होने के बावजूद किस तरह का आचरण कर रहे हैं तब यह एकमात्र शर्त संदिग्ध हो जाती है।'
(देशबन्धु सम्पादकीय 29 दिसंबर 2014)
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