ललित सुरजन की कलम से- सफेदपोशों का अपराध
'सफेदपेशों का अपराध' में जो घटनाएं वर्णित हैं उनसे आम जनता काफी हद तक परिचित है

'सफेदपेशों का अपराध' में जो घटनाएं वर्णित हैं उनसे आम जनता काफी हद तक परिचित है। जिन आपराधिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण लेखकद्वय ने किया है उनका सामना भी आम आदमी को आए दिन करना पड़ता है। देश की राजनीति हाल के दशकों में किस तरह विकृत हुई है तथा सामाजिक ताना-बाना किस कदर छिन्न-भिन्न हुआ है उसे हम रोज ही देख रहे हैं।
बहुत से लोगों, जिनमें मैं भी शामिल हूं, का मानना है कि भारत में इस शोचनीय परिवर्तन की शुरूआत 1990 के दशक में हुई जब आर्थिक उदारीकरण ने हमारी दहलीज पर कदम रखा। एक संज्ञा इन तीस-पैंतीस सालों में काफी प्रचलित हो गई है, जिसे 'एलपीजी' कहा जाता है याने उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण। एलपीजी को हम एक अन्य रूप में भी जानते हैं याने घरेलू रसोई गैस। इस समानता को देखकर यह टिप्पणी भी कभी की गई है कि सिलेण्डर में विस्फोट हो जाए तो वह जानलेवा हो सकता है।'
'अगर हम पिछले कुछ दशकों की राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक स्थितियों का अध्ययन करें तो यह बात आईने की तरह साफ हो जाती है कि एलपीजी के चलते देश और दुनिया में अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ी है। गरीब की संघर्षशीलता और संघर्ष क्षमता में कमी आई है, जबकि अमीर पहले की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा उच्छृंखल व्यवहार करने लगे। एक समय सम्पन्न लोग तिनके की ओट बराबर ही सही अपने वैभव का प्रदर्शन करने से संकोच करते थे तो वह तिनका भी न जाने कब का उड़ चुका है। अगर थोड़ा बारीकी में जाएं तो यह तथ्य भी समझ आने लगता है कि जो नई सम्पन्नता आई है वह मेहनत के बल पर नहीं बल्कि किसी हद तक अपराधों के बल पर हासिल की गई है।'
(अक्षर पर्व दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/12/blog-post_25.html


