ललित सुरजन की कलम से- स्वच्छ प्रशासन की चिंता-2
'हमने सुना और देखा भी है कि कुछ साल पहले तक युवा अधिकारियों की मैदानी ट्रेनिंग कैसे होती थी

'हमने सुना और देखा भी है कि कुछ साल पहले तक युवा अधिकारियों की मैदानी ट्रेनिंग कैसे होती थी, कैसे वे पटवारी से लेकर सिपाही तक से ज्ञान हासिल करते थे, छोटे-मोटे कस्बों में किस तरह वे अपने दिन बिताते थे। वह सब शायद आज भी होता हो, लेकिन ऐसा लगता है कि नवसाम्राज्यवाद के इस दौर में जो इंद्रजाल फैला है उसमें फंसने से ये अपने आपको नहीं बचा पा रहे हैं।
अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी के पास दो बातें होती हैं- गर्व और दंभ। वह या तो गर्व कर सकता है कि उसे समाज की सेवा करने का एक बहुमूल्य अवसर मिला है इसके विपरीत वह इस दंभ में रह सकता है कि उसका जन्म लोगों पर राज करने के लिए हुआ है।'
'एक समय था जब नए-नए आईएएस के बारे में आमतौर पर माना जाता था कि वह पांच-सात साल तो बिना पैसा खाए काम करेगा। पिछले बीस साल में यह धारणा पूरी तरह बदल गई। यही वजह है कि अब अधिकारी अपनी राय लिखने के बजाय मौखिक आदेश पर काम करते हैं। शायद ऐसा भी है कि बहुत से लोग अपने मंत्री को ही बताते हैं कि सर ऐसा करने से आपको फायदा होगा। और अगले चुनाव की चिंता में डूबा मंत्री ऐसे चतुर अधिकारी की बात मान लेता है।'
(देशबन्धु में 14 नवम्बर 2013 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/11/2.html


