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ललित सुरजन की कलम से - जातिसूचक रैलियों पर प्रतिबंध

'यह देखना कठिन नहीं है कि जाति के प्रश्न पर देश दो धड़ों में बंटा हुआ है

ललित सुरजन की कलम से - जातिसूचक रैलियों पर प्रतिबंध
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'यह देखना कठिन नहीं है कि जाति के प्रश्न पर देश दो धड़ों में बंटा हुआ है। आज चूंकि देश का संविधान जाति के आधार पर भेदभाव की इजाज़त नहीं देता, इसलिए उसे खत्म करने या उसके अप्रासंगिक हो जाने की बात जो लोग करते हैं, वे एक तरह से अपना मन बहलाव ही करते हैं। यह सच है कि आज के समय में बहुतेरे नवयुवा जातिबंधन के परे जाकर प्रेमविवाह करते हैं, लेकिन इनका प्रतिशत कितना है?

दूसरी तरफ अखबारों में जो वैवाहिक विज्ञापन छपते हैं, उनमें अन्य अहर्ताओं के साथ जाति की अनिवार्यता अथवा जाति का उल्लेख जिस प्रमुखता के साथ किया जाता है, वह क्या दर्शाता है? आईआईटी और आईआईएम से पढ़कर निकलने वाले बच्चे भी अपनी रूढ़िवादी मानसिकता के चलते स्वयं को जातिवाद से मुक्त नहींकर पाते हैं। सच तो यह है कि जो लोग जाति प्रथा अप्रासंगिक हो जाने की बात करते हैं, वे तथाकथित निचली जातियों के राजनीतिक या आर्थिक सशक्तिकरण से घबराए हुए लोग हैं।'

'देश के बड़े-बड़े शिक्षा संस्थानों में जहां आरक्षण के कारण दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों के बच्चों को प्रवेश मिल जाता है, वहां आए दिन उनके साथ उच्च वर्ण के विद्यार्थियों द्वारा जो दुर्व्यवहार और उत्पीड़न किया जाता है, वह एक कड़वी सच्चाई है। यही स्थिति सरकारी दफ्तरों में भी है। निजी क्षेत्र की बात करें तो वहां सरकार की मंशा और अनुरोधों के बावजूद इनके लिए कोई व्यवस्था अभी तक नहींबनने दी गई है।'

(देशबन्धु में 18 जुलाई 2013 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/07/blog-post_18.html


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